भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब तो कुछ और भी अँधेरा है / 'हफ़ीज़' जालंधरी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:10, 25 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='हफ़ीज़' जालंधरी }} {{KKCatGhazal}} <poem> अब तो क...' के साथ नया पन्ना बनाया)
अब तो कुछ और भी अँधेरा है
ये मिरी रात का सवेरा है
रह-ज़नों से तो भाग निकला था
अब मुझे रह-बरों ने घेरा है
आगे आगे चलो तबर वालो
अभी जंगल बहुत घनेरा है
क़ाफ़िला किस की पैरवी में चले
कौन सब से बड़ा लुटेरा है
सर पे राही की सरबराही ने
क्या सफाई का हाथ फेरा है
सुरमा-आलूद ख़ुश्क आँसुओं ने
नूर-ए-जाँ ख़ाक पर बिखेरा है
राख राख उस्तख़्वाँ सफ़ेद सफ़ेद
यही मंज़िल यही बसेरा है
ऐ मिरी जान अपने जी के सिवा
कौन तेरा है कौन मेरा है
सो रहो अब ‘हफीज़’ जी तुम भी
ये नई ज़िंदगी का डेरा है