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अब नहीं / श्रीकान्त जोशी

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पहले सोचा करता था मृत्यु बड़ी बात है
बड़ी और असहनीय
अब नहीं।
मृत्यु की अनेक छायाएँ मैंने विवशताओं के भीतर धँसकर
बर्दाश्त की हैं
एक अनाकांक्षित जीवन जीते हुए
मैंने विकल्पहीन रास्तों का अनुगमन किया है।
परिस्थितियों के चक्रव्यूहों की घुटन में
मरण बेहद आरामदेह होता।
पर नहीं, यह नहीं
यह तो कोई बड़ी बात न होती।
और अब जब उस दौर के इस तरफ़ आ गया हूँ
और वह सब करने को स्वतंत्र हूँ जो न कर सका
तो सोचता हूँ ठीक किया उस आरामदेह अंधकार को
अस्वीकार देकर।
झुक जाता वक़्त से डर
तो ठहर गया होता किसी अतीतोन्मुख क्षण-बिंदु पर
अ-रचित, अ-पठित, सु-विस्मृत और समाप्त।
एक अंधी सुरंग से बचकर
जीवन के आलोक-छोर को स्पर्श कर
अब मैं हूँ अस्तित्व।
मैं वह सब रद्द करता हूँ जो मैंने ढोया, जिया नहीं
मैं जीवन-देह के उस कैंसर को स्वयं
काट कर फेंक चुका हूँ
और अब स्वयं अपना चिकित्सक हूँ
मैं अपनी प्रकृति से मोक्ष प्राप्त करूँगा
विकृतियों की कुटिलता से नहीं।
अपने अनुभवों के शिखर से आगाह करता चला जाऊँगा
सुनो शेषजन! सुनो,
मार्ग वह नहीं, यह है इस तरफ़
अब विगत के अपूर्ण और अपक्व क्षण
शेष की पूर्णता और पक्वता बनेंगे
सच, बख़ूबी जान गया
मर जाना बड़ी बात नहीं एक सुविधा है, विलास है
जीवन ही पुरुष है
और मरणातिक्रमण... पुरुषार्थ!