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अब भी युग के परिवर्तन में थोड़ी-सी देर है / बलबीर सिंह 'रंग'

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अब भी युग के परिवर्तन में थोड़ी-सी देर है।

युग कभी बदलता नहीं, बदलती युग की परिभाषा,
संघर्षों में सदा पनपती नव-युग की आशा,
जन-मन के युग आवाहन में थोड़ी-सी देर है।

जीवन भर यों गम्भीर नहीं रह पाएगा सागर,
बन्दी प्रवाह के साथ नहीं बह पाएगा सागर,
लहरों के ताण्डव नर्तन में थोड़ी-सी देर है।

अधखिले मनोहर फूल सूख कर धूल नहीं होंगे,
आँधी, पानी, मलयानिल के प्रतिकूल नहीं होंगे,
सम्भावित, प्रलय प्रभंजन में थोड़ी-सी देर है।

शोषण का जीवन के पोषण से मेल नहीं होगा,
वैभव के हित उत्थान पतन का खेल नहीं होगा,
विप्लव के खुले निमंत्रण में थोड़ी-सी देर है।

तम की विभीषिका देख नहीं घबरायेगी सविता,
कल्पना लोक की कला नहीं कहलायेगी कविता,
कवि के सर्वस्व समर्पण में थोड़ी-सी देर है।