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"अब सुनो तुम / सुभाष राय" के अवतरणों में अंतर

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सुबह का सूरज
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तुम्हारे भाल पर उगा रहता है अक्सर  
तुम्हारे भाल पर  
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सुबह का सूरज मेरे हृदय तक उजास किए हुए  
उगा रहता है अक्सर  
+
मेरी सबसे सुन्दर रचना भी  
मेरे ह्रदय तक  
+
कमज़ोर लगने लगती  है जब देखता हूँ तुम्हें
उजास किये हुए  
+
 
+
दिये की तरह जलते रक्ताभ नाख़ून
मेरी सबसे सुन्दर
+
दो पँखड़ियों जैसे अधर
रचना भी कमजोर
+
काले आसमान पर लाल नदी बहती हुई 
लगने लगती  है  
+
जब देखता हूँ  
+
एक पूरा आकाश है तुम्हारे होने में   
तुम्हें सम्पूर्णता में
+
जिसमें बिना पँख के भी उड़ना  सम्भव है
 
+
जिसमें उड़कर भी उड़ान होती ही नहीं  
दिए की तरह जलते  
+
चाहे जितनी दूर चला जाऊँ किसी भी ओर  
तुम्हारे रक्ताभ नाख़ून
+
पर होता वहीँ हूँ, जहाँ से भरी थी उड़ान  
दो पंखडियों जैसे अधर
+
काले आसमान पर लाल
+
तुम नहीं होती तो अपने भीतर की  
नदी बहती देखता हूँ मैं
+
चिंगारी से जलकर नष्ट हो गया होता  
 
+
चट्टान के कटोरे में सम्भाल कर रखती हो मुझे
सचमुच  एक पूरा  
+
ख़ुद सहती हुई अनहद उत्ताप
आकाश होता है तुम्हारे होने में   
+
जलकर भी शान्त रहती हो निरन्तर
जिसमें बिना पंख के  
+
भी उड़ना  संभव है
+
जो बन्धता नहीं कभी
जिसमें उड़कर भी  
+
जो अनन्त बाधाओं के आगे भी
उड़ान होती ही नहीं  
+
रुकता नहीं, झुकता नहीं, ठहरता नहीं
क्योंकि चाहे जितनी दूर
+
वह फूलों की घाटी में आकर भूल गया  
चला जाऊं किसी भी ओर  
+
कि कोई  और भी मँज़िल है मधु के अलावा  
पर होता वहीँ हूँ
+
जहाँ से भरी थी उड़ान  
+
सुन रही हो तुम या सो गईं सुनते-सुनते
 
+
पहले तुम कहती थीं, मैं सो जाता था  
तुम नहीं होती तो
+
अब मैं कह रहा हूँ, तुम सो चुकी हो
अपने भीतर की चिंगारी से  
+
उठो, जागो और सुनो, मुझे आगे भी जाना  है
जलकर नष्ट हो गया होता  
+
बह गया होता दहक कर
+
तुम चट्टान के बंद
+
कटोरे में संभाल कर
+
रखती हो मुझे
+
खुद सहती हुई  
+
मेरा अनहद उत्ताप
+
जलकर भी शांत
+
रहती हो निरंतर
+
जो बंधता नहीं  
+
कभी भी, कहीं भी
+
वह जाने कैसे बंध गया
+
कोमल कमल-नाल से
+
जो अनंत बाधाओं के आगे भी
+
रुकता नहीं, झुकता नहीं
+
कहीं भी ठहरता नहीं
+
वह फूलों की घाटी में
+
आकर भूल गया चलना
+
भूल गया कि कोई  और भी
+
मंजिल है मधु के अलावा  
+
 
+
सुन रही हो तुम
+
या सो गयी सुनते-सुनते
+
पहले तुम कहती थी
+
मैं सो जाता था  
+
अब मैं कह रहा हूँ
+
पर तुम सो चुकी हो
+
 
+
उठो, जागो और सुनो  
+
मुझे आगे भी जाना  है
+
 
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21:59, 26 जुलाई 2019 के समय का अवतरण

तुम्हारे भाल पर उगा रहता है अक्सर
सुबह का सूरज मेरे हृदय तक उजास किए हुए
मेरी सबसे सुन्दर रचना भी
कमज़ोर लगने लगती है जब देखता हूँ तुम्हें
 
दिये की तरह जलते रक्ताभ नाख़ून
दो पँखड़ियों जैसे अधर
काले आसमान पर लाल नदी बहती हुई
 
एक पूरा आकाश है तुम्हारे होने में
जिसमें बिना पँख के भी उड़ना सम्भव है
जिसमें उड़कर भी उड़ान होती ही नहीं
चाहे जितनी दूर चला जाऊँ किसी भी ओर
पर होता वहीँ हूँ, जहाँ से भरी थी उड़ान
 
तुम नहीं होती तो अपने भीतर की
चिंगारी से जलकर नष्ट हो गया होता
चट्टान के कटोरे में सम्भाल कर रखती हो मुझे
ख़ुद सहती हुई अनहद उत्ताप
जलकर भी शान्त रहती हो निरन्तर
 
जो बन्धता नहीं कभी
जो अनन्त बाधाओं के आगे भी
रुकता नहीं, झुकता नहीं, ठहरता नहीं
वह फूलों की घाटी में आकर भूल गया
कि कोई और भी मँज़िल है मधु के अलावा
 
सुन रही हो तुम या सो गईं सुनते-सुनते
पहले तुम कहती थीं, मैं सो जाता था
अब मैं कह रहा हूँ, तुम सो चुकी हो
उठो, जागो और सुनो, मुझे आगे भी जाना है ।