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अभिरमण / महेन्द्र भटनागर

कल सुबह से रात तक
कुछ कर न पाया
कल्पना के सिंधु में
युग-युग सहेजी आस के दीपक

बहाने के सिवा !

हृदय की भित्ति पर
जीवित अजन्ता-चित्रस... रेखाएँ

बनाने के सिवा !

किस क़दर
भरमाया
तुम्हारे रूप ने !

कल सुबह से रात तक
कुछ कर न पाया
सिर्फ़
कल्पना के स्वर्ग में
स्वच्छंद सैलानी-सरीखा

घूमा किया !

नशीली-झूमती
मकरंद-वेष्टित
शुभ्र कलियों के कपोलों को
मधुप के प्यार से

चूमा किया !

किस क़दर
मुझको सताया है
तुम्हारे रूप ने !

कल सुबह से रात तक
कुछ कर न पाया
भावना के व्योम में
भोले कपोतों के उड़ाने के सिवा !
अभावों की धधकती आग से
मन को जुड़ाने के सिवा !

भटका किया,
हर पल
तुम्हारी याद में अटका किया !

किस क़दर
यह कस दिया तन मन
तुम्हारे रूप ने !