Last modified on 27 जुलाई 2012, at 12:29

अभिलाषा / धर्मेन्द्र चतुर्वेदी


वे भुलाती हुई
हमारी सारी वेदनाएँ और सुख
समय और उम्र
जन्म ले लेती हैं
जटिल से जटिल परिस्थितियों में

उनके आश्रय में हम
लहरों की अंगडाई सुला देते हैं
आकाश की ऊँचाई मिटा देते हैं
आँधियों में दीप जलाने लगते हैं
पत्थर की छाती पर नव-अंकुर उगाने लगते हैं
वे उडाकर हमारी नींदें
चाहती हैं नियति का सर कलम करना

ऐसी ही होती हैं अभिलाषाएँ
छोटी,बड़ी,स्वान्तःसुखाय या परिजनहिताय

जैसे मेरी अभिलाषा कहती है कि
जब मैं नव-सृष्टि के सृजन को आगे बढूँ
तो तुम आओ मेरे साथ
और जब शिथिलता मेरे बदन पर आकर बंधक बनाने का करे प्रयास
तो तुम मुझे प्रेरित करती
अपने हाथों से पिलाओ...ओक भर पानी