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अभिशप्त अप्सरा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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भावों की नदी
प्रेम नीर से भरी
छलकती थीं
तटों को तोड़कर
बना ही दिया
तुम्हारी ही वाणी ने
प्रियात्मा को भी
अभिशप्त अप्सरा।
छीने थे भाव
कुचला अनुराग
बिछाते रहे
पथ में सिर्फ़ आग।
तुम्हें क्या मिला
छीनकर चाँदनी!
कुंठा तुम्हारी
प्रसाद बन मिली
मुर्झाती गई
वह रूप की कली
आज जो देखी
वह उदास परी
रो उठा मन
प्रभु से मैं माँगता-
सुख उसको मिले !