भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अभी तो आँच में‍ पककर ज़रा तैयार होने हैं / ज्ञान प्रकाश विवेक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अभी तो आँच में‍ पककर ज़रा तैयार होने हैं
अभी हम गीली मिट्टी के बहुत कच्चे खिलौने हैं

ये पर्वत ख़ूबसूरत लग रहे है‍ आपको साहब
मगर कुछ लोगे ऐसे हैं‍ जिन्हें कन्धे पे ढोने हैं

उजाले की फ़सल काटेगा वो अपने गाँव में जाकर
वो कहता है कि अब की बार उसने चाँद बोने हैं

भटकता रहता हूँ दिनभर किताबें कापियाँ लेकर
मैं उस छोटे-से कमरे में कि जिसमें चार कोने हैं

कभी फिर आपके घर आएँगे वादा रहा यारो
अभी घर जाके हमने सर्फ़ में कपड़े भिगोने हैं

अभी हम चाँदनी का जिस्म छू सकते नहीं हर्गिज़
अभी तो धूप के पानी से हमने हाथ धोने हैं

हवाएँ, धूप, पानी, आग, बारिश, आसमाँ, तारे
यही कम्बल हमारे हैं यही अपने बिछौने हैं