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अभी सिर्फ़ एक आँख जगी है / संजय कुमार शांडिल्य

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आज कल मुझे उस बर्फ़ के पहाड़ की
टूट कर गिरने की हवा बहा ले जाती है
जिसके ऊपर एक ग्लेशियर फिसलता है
नीचे हज़ारों फ़ीट घाटी में लुढ़कने से पहले
उसका गिरना उसके साथ बहता है
बस दिखता है कभी-कभी
गोशा-गोशा इस मेरी देह में
कच्ची बर्फ़ लगी है
एक बड़े राष्ट्रीय आरे से काटा
जा रहा हूँ
मेरी सिर्फ़ एक आँख बची हुई है
स्वयं को काटे जाते हुए
देखने के लिए।
चारों तरफ सिर्फ़ रक्त-माँस के टीले हैं
जीवन के मृदुभाण्ड से भरा
ख़ूब भयानक जंगल है चारों तरफ़
सिर्फ़ उदासियाँ रह सकती हैं
इतने विरानेपन में
यहीं श्रम से हल्की मेरी देह
लुढ़की है नींद की मृत्यु में
बस हृदय की माँसपेशियों में
गर्म रक्त की आवाजाही ही
हरकत है
और ऐन दिल के ऊपर
फन फैलाए बैठा है विषधर।
हम दूर निकल आए हैं
इस अलक्षित जीवनखण्ड की रेकी में
किसी युद्धरत देश में
बाशिन्दों से भरे
सिर्फ़ एक पल पूर्व के किसी शहर में
पहुँचने की सारी जगहें
जैसे मानचित्र में ग़लत अंकित हों
और शत्रुओं के भू-क्षेत्र में
बम की तरह पौ फटे
उस रोज़ धमाके से निकल आए
सूरज।
कितनी अजीब बात है कि इस शहर में
मेरी आत्मा ही मेरा बख्तर है
अठारह किलो का
मेरे विचार मेरा हेलमेट आठ किलो का
और मेरी साँसें वही आठ किलो
भारी असलहे।
एक खूब भरी हुई नदी में मैं उतर रहा हूँ
और अचेत हूँ
इस नदी की पृथ्वी से टकरा कर
बस एक क्षण पहले लौटी है मेरी चेतना
चारों तरफ़ रेत ही रेत है
चारों तरफ़ साँप ही साँप है
चारों तरफ़ बर्फ़ ही बर्फ़ है
चारों तरफ़ पानी ही पानी है
सिर्फ़ मेरी एक आँख जगी है
स्वयं को जीवित देखने के लिए।