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जन्मों से उठाए फिरती हूँ
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सौम्यता का बोझ
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तभी तो इतनी लचीली है मेरी रीढ़
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और कमाल है जज़्ब की शक्ति
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समंदर है मेरे भीतर
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जिसके तल पर जमा है
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संपदा दुख-सुख की
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पूछते हो कैसे समा लेती हूँ सब
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जी जन्म से अभ्यास जो कर रही हूँ
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और आज भी ज़ारी है
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पर यूँ न समझ लेना रिक्त हूँ शक्तियों से
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मुझमें भी हैं शोले हाँ ये अलग बात है कि
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दबा के रखे हैं मुठ्ठियों में
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धुँआँ उठता है उनमें भी
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पर रोक लेती हूँ भड़कने से
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मुझमें भी निहित है पशु
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जो निरंतर रहता है चैतन्य
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इसीलिए तो बुनती हूँ प्रतिदिन नया कलेवर
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चाहती हूँ गिरा रहे परदा बना रहे रोमांच
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जानती हूँ हवा दी शोलों को तो
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शून्य हो जाओगे तुम
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तभी तो बनाए हुए हूँ अभ्यास का अभियान
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नहीं चाहती फिर गढ़ा जाए नया इतिहास
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लिखे जाएँ सफे तुम्हारी तबाही के
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मेरी सोच की शुचिता ही तो
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बनाए हुए है तुम्हारा पौरुष
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वरना कब का पराजित हो चुका होता
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तुम्हारा अहं मेरे अहं से।
  
 
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17:56, 14 जून 2019 के समय का अवतरण


जन्मों से उठाए फिरती हूँ
सौम्यता का बोझ
तभी तो इतनी लचीली है मेरी रीढ़
और कमाल है जज़्ब की शक्ति
समंदर है मेरे भीतर
जिसके तल पर जमा है
संपदा दुख-सुख की
पूछते हो कैसे समा लेती हूँ सब
जी जन्म से अभ्यास जो कर रही हूँ
और आज भी ज़ारी है
पर यूँ न समझ लेना रिक्त हूँ शक्तियों से
मुझमें भी हैं शोले हाँ ये अलग बात है कि
दबा के रखे हैं मुठ्ठियों में
धुँआँ उठता है उनमें भी
पर रोक लेती हूँ भड़कने से
मुझमें भी निहित है पशु
जो निरंतर रहता है चैतन्य
इसीलिए तो बुनती हूँ प्रतिदिन नया कलेवर
चाहती हूँ गिरा रहे परदा बना रहे रोमांच
जानती हूँ हवा दी शोलों को तो
शून्य हो जाओगे तुम
तभी तो बनाए हुए हूँ अभ्यास का अभियान
नहीं चाहती फिर गढ़ा जाए नया इतिहास
लिखे जाएँ सफे तुम्हारी तबाही के
मेरी सोच की शुचिता ही तो
बनाए हुए है तुम्हारा पौरुष
वरना कब का पराजित हो चुका होता
तुम्हारा अहं मेरे अहं से।