भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अमरूद मियाँ / योगेन्द्र दत्त शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अमरूद मियाँ! अमरूद मियाँ!
मैं जहाँ कहीं भी जाता हूँ,
तुम रहते हो मौजूद, मियाँ!
तुम मीठे-मीठे, गोल-गोल
जैसे शरबत से भरे हुए,
इतराते फिरते हो, लेकिन
लगते अनार से डरे हुए।
तुम रहे इलाहाबाद कभी
पर गए यहाँ पर कूद, मियाँ!
अमरूद मियाँ! अमरूद मियाँ!
जब होते हरे, कड़े लगत
पीले होते तो बड़े नरम,
भीतर से तुम बेहद सफेद
जैसे रसगुल्ला या चमचम।
इतने सफेद तुम कैसे हो
क्या पीते हो तुम दूध, मियाँ!
अमरूद मियाँ! अमरूद मियाँ!
तुम आम नहीं, पर खास बहुत
कुछ बात निराली है जरूर,
क्या इत्र लगाकर आते हो
खुशबू फैला देते, हुजूर।
तुम इधर-उधर लुढ़का करते,
क्या चलते आँखें मूँद, मियाँ!
अमरूद मियाँ! अमरूद मियाँ!