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अमर्त्य सेन / सरोज परमार

ज़मीनी सोच के पंखों पर
तिर रहा है
सिरफिरा अमर्त्य लिख रहा है
धकियाने पर भी लिख रहा है
एक दिन अन्तर्राष्ट्रीय होता है
बंगभाषी अमर्त्य.
राश्ग्ट्रीय अस्मिता की पहचान
आन,बान,शान
मंच सज्जा का सामान
हो जाता है अमर्त्य.
उसे सुना जाता है
अपनी -अपनी सहूलियतों से
समझा जाता है
अमल में लाने की ज़रूरत
शायद कतई नहीं.
उनकी उपलब्धियों पर
इठलाएँगे सदियों तक हम.
मुझे भय है , धीमे-धीमे
विश्व पटल पर सजा दिए जाएँगे अमर्त्य
भारत का मुलम्मा चढ़ा कर
उनके सिद्धान्तों को डाल
दिया जाएगा चाँदी मढ़े
सन्दूकों में
धरोहर की तरह
माहिर हैं हम
इतिहास बनाने
औ आरती सजाने में.