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अमावस की नदी / संजय शाण्डिल्य

अमावस की रात –
इस पुल से
नदी के दोनों तट दिख रहे
कितनी दूर ... कितने अलग ...

रात ने
नदी पर डाल रखी है
अपनी चादर

चाँद का
दूर ... दूर ... तक पता नहीं
होगा कहीं
किसी पर फ़िदा

आज की रात
आकाश से ज़्यादा
नदी ही काली हो गई है

क्या आकाश ने भी
अपनी नीलिमा घोल दी है
नदी में चुपचाप

अमावस की इस रात –
इस पुल से जो दिख रहे तट
उनमें कितनी विषमता है
एक ओर तो ऊँचे - ऊँचे प्रकाश-स्तम्भ हैं
जिनसे नदी के हृदय पर
प्रकाश-ऊर्मियों की असंख्य मछलियाँ
झिलमिला रही हैं

पर दूसरी ओर
घनघोर अन्धेरे के रेगिस्तान में
फँसा - धँसा पड़ा है
वह दियारा-क्षेत्र
जहाँ से सियारों की आवाज़ें
लगातार बह रही हैं कानों तक

तटों का लोकतन्त्र
एकदम बिखर-सा गया है !