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अमिट स्त्रीत्व / अलकनंदा साने

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'अ' अनार का सीख रही थी
तभी दौड़ते-भागते
'ड' आ पहुँचा डर लेकर
और माँ ने पकड़ा दिया
'स' सुरक्षा का

सुगन्धित फूल की तरह खिल रहा स्त्रीत्व
अपने साथ 'ल' लज्जा का लेकर आया
और साथ-साथ चलते रहे 'ड' और 'स' भी
'ड' के साथ कई बार जोड़ना चाहा 'नि' को
निडर बनाने के लिए
पर यह न हो सका
'स' के साथ 'अ' ज़रूर जुड़ गया
अनजाने, अनचाहे
और 'स' सुरक्षा का असुरक्षित हो गया

हाँफते-हाँफते,
थकी-मांदी
चढ़ ही गई किसी तरह कितने ही दशकों की सीढ़ियाँ
'अ' अनार का पीछे छूट गया था
धीरे-धीरे 'ड' डर का
और 'स' सुरक्षा का, जिसमें 'अ' जुड़ गया था
वह भी भूल गई मैं
'ल' लज्जा का भी कहीं गुम हो गया

अब मेरे साथ था
'म' मुक्त का
'ब' बेहिचक का
'ग' गरिमा का
'प' प्रणाम का
सब कुछ नया था
बस पुराना था तो अपने भीतर का
भरपूर स्त्रीत्व
उससे भी निवृृत्ति पाकर
मैं चलना चाहती थी
व्यक्ति के 'व' को साथ लेकर

लेकिन जल्दी ही जान गई
कि सब कुछ छोड़ा जा सकता है
पर अपने स्त्रीत्व को नहीं
याद दिलाता ही रहता है हर वक़्त कोई न कोई

बहत्तर साल की उस नन के मुकाबले
अभी भी युवा हूँ मैं
और कितने ही कमज़र्फ़
घूम रहे हैं मेरे आस-पास भी ।