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अमृत खोया / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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316
साँझ सहेली !
छोड़ो ये इंतज़ार
बन्द हैं द्वार ।
317
संध्या वेला में
बहुत याद आए
अपने साए ।
318
छलिया साथी
संझा द्वारे दे गए
शूल-पोटली।
319
साँझ हो गई
पथ है अनजाना
अब आ जाओ।
320
नींद छीनते
बरसा कर मोती
खज़ाने वाले ।
321
लोभी है मन
बटोरना चाहता
बिखरा धन।
322
रस का लोभी
जगे रजनी भर
नींद उड़ी है ।
323
मन के मोती
मिलते हैं जिसको
वह क्यों सोए?
324
अमृत खोया
चाँदनी रातों में भी
जो कभी सोया।
325
झरे चाँदनी
सब खुले झरोखे
नींद नहाए।
326
शान्त रात में
टिटिहरी जो चीखी
जंगल जागा।
327
नींद उचाट
यादों की तरी लगी
मन के घाट ।
328
याद जो आए
सभी साथी पुराने
भीगी पलकें ।
329
स्नेह की बातें
फिर से याद आईं
फूटी रुलाई ।
330
भोर सुहानी
उतरी है अँगना
मुदितमना।