भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अम्मा चली गई / शशिकान्त गीते

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:41, 31 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशिकान्त गीते |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूजा-घर का दीप बुझा है
अम्मा चली गई।

अन्त समय के लिए सहेजा
गंगा-जल भी नहीं पिया
इच्छा तो कितनी थी लेकिन
कोई तीरथ नहीं किया
बेटों पर विश्वास बड़ा था
आख़िर छली गई।

लोहे की सन्दूक खुली
भाभी ने लुगडे छाँट लिए
औ' सुनार से वज़न कराकर
सबने गहने बाँट लिए
फिर उजले संघर्षो पर भी
कालिख मली गई।

रिश्तेदारों की पंचायत
घर की फाँके, चटखारे
उसकी इच्छाओं, हिदायतों
सपनों पर फेरे आरे
देख न पाती बिखरे घर को
अम्मा ! भली गई।