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अम्मा / प्रतिमा त्रिपाठी

अम्मा अक्सर याद आती है
साँवली हँसी में गुंथी हुई
कामकाजी खुरदुरा हाथ
सीधे पल्लू की साड़ी में लिपटी
सबके बस में पर खुद बेबस !

उसकी आँखों जितने बड़े थे उसके आँसू
हाथ की लकीरों में बसी थी पूरी गृहस्थी
माथे की गोल लाल बिंदी के नीचे कहीं
दब के रह गई थीं किस्मत की लकीरें
बँटवारे में सब कुछ बंटा
केवल उसकी जिम्मेदारियाँ न बटी !

उनकी वकत ये थी घर में कि
धुएँ से धुंधला गई थीं आँखे.. पर
सबको लगता उनको रोशनी अजीर्ण है
पाँव गठिया चुगता रहा भीतर-भीतर
पर चेहरे पर दर्द से पर्देदारी करनी पड़ती !

आंगन भर आसमान उसके हिस्से
और रसोई भर जमीन पर मलकाना
घर की चाहरदीवारी के बाहर का हिस्सा
तीरथ-बरत, देबी-दरसन में घूंघट कि आड़ से
जितना दिख जाए उतनी ही पूरी पृथ्वी !

उनकी आँखों में सपने-वपने जैसा
कुछ कभी था क्या, पता नहीं
बातों में कभी कुछ बरामद न हुआ
पर मन से तन से झाँक-झाँक कर
दिखता था जो, वो दुःख था
औरत होने का दुःख !

जीवन भर नरक भोग के सुनते हैं कि
सरग गई, जानते हो क्यूँ ?
सुहागिन मरी न !!! इसीलिए
और उसपे ताज्जुब ये कि जिस मरद ने
रौशनी में कभी उस मनहूस का मुँह ना देखा
वो, उसकी मिट्टी के साथ पैदल मसान तक गया
अस की भागमानिन !

श्रापवस आई थी धरती पे
अम्मा देउता थी ..
कहती थी कभी-कभी
सब औरतें श्रापवस रहती हैं धरती पे !