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"अरथ मिनख रो किण नैं बूझै / रवि पुरोहित" के अवतरणों में अंतर

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<poem>जीव झबळकै, मनङो जूझै
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जीव झबळकै, मनङो जूझै
 
लोक लाज तद किण विध सूझै
 
लोक लाज तद किण विध सूझै
  

11:22, 17 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण

जीव झबळकै, मनङो जूझै
लोक लाज तद किण विध सूझै

जीव पेट नैं
घणौ भुळायो
भूखै मन नै
घणो जुळायो,
कद लग राखै
आंकस भूख
पेट मिनख नैं
घणो घुळायो ।

पेट कसाई पापी हुयग्यो
जात-धरम रो जीव अमूझै
  
रोटी सट्टै
इज्जत बिकगी
रोटी खातर
आंख्यां सिकगी,
काण-कायदा
छूट्या सगळा
बैमाता कै लेख लिखगी ?


जीव जगत रो बैरी हुयग्यो
कामधेनु तद किण विध दूझै


मन मंगळ रो
सरब रूखाळो
भूख-चाकी तो
मांगै गाळो,
पंचायतिया
करै न्याव जद
क्यूं नीं ले लै
पेट अटाळो

हेवा हुयग्यो जीव दमन रो
अरथ मिनख रो किण नैं बूझै ?