भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अरमान मुद्दतों में निकलता है दीद का / मेला राम 'वफ़ा'" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मेला राम 'वफ़ा' |अनुवादक= |संग्रह=स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 30: पंक्ति 30:
 
जमने दिया न गर्मिए-उल्फ़त ने तेग़ पर
 
जमने दिया न गर्मिए-उल्फ़त ने तेग़ पर
 
ठंडा हुआ न खून तुम्हारे शहीद का।
 
ठंडा हुआ न खून तुम्हारे शहीद का।
 +
 +
हूरों का इज़दिहाम है हद्दे-निगाह तक
 +
फिरदौस को जलूस चला है शहीद का
 +
 +
हासिल ग़लत नवाज़िए-सरकार-हुस्न से
 +
हर बुलहवस को रुतबा है ज़िंदा शहीद का
 +
 +
अशरारे-दोस्ती में है अशराफ़े-दुश्मनी
 +
क़ातिल 'हुसैन' का है मुआविन 'यज़ीद' का
 +
 +
अमोज़गारे-कुफ़्र हो जब पीर का चलन
 +
ईमान क्या रहेगा सलामत मुरीद का
 +
 +
फ़ुर्सत न दी ज़बान को हासिल के शुक्र ने
 +
यानि कि हो सका न तक़ाज़ा मज़ीद का
 +
 +
तारीक़ ही रही मिरी दुनियाए-आरज़ू
 +
बे-सूद ही चराग़ जलाया उमीद का
 +
 +
हाथों से वो भी छूट गया इज़तिराब में
 +
ले दे के था जो एक सहारा उमीद का
 +
 +
बचता मैं तल्ख़-कामिए-अंजाम से कहां
 +
आग़ाज़ से फ़रेब-ज़दा था उमीद का
 +
 +
धोने पड़ेंगे जान से हाथ ऐ 'वफ़ा' हमें
 +
होगा यही मआल तमन्नाऐ-दीद का।
 
</poem>
 
</poem>

12:27, 11 अगस्त 2018 के समय का अवतरण

अरमान मुद्दतों में निकलता है दीद का
दिलदार बन के हो गये तुम चांद ईद का

हो जाते साथ आप भी दो चार दस क़दम
ले जा रहे हैं लोग जनाज़ा शहीद का

ठोकर को इतेफाक न गर्दानिए-हुज़ूर
रुक जाइए मज़ार यही है शहीद का

कद्रे मिटाई जाती हैं एहले-क़दीम की
आईन बन रहा है निज़ामे-जदीद का

रुख़ से उठाओ पर्दा कि तस्कीं-पज़ीर हो
दिल में तड़प रहा है इक अरमान दीद का

तूफ़ाने-यास की हैं यही शिद्दतें अगर
रौशन कहां चराग़ रहेगा उमीद का

होती है जब बसर तिरी सुहबत में रात दिन
हर रात थी बरात की हर दिन था ईद का

जमने दिया न गर्मिए-उल्फ़त ने तेग़ पर
ठंडा हुआ न खून तुम्हारे शहीद का।

हूरों का इज़दिहाम है हद्दे-निगाह तक
फिरदौस को जलूस चला है शहीद का

हासिल ग़लत नवाज़िए-सरकार-हुस्न से
हर बुलहवस को रुतबा है ज़िंदा शहीद का

अशरारे-दोस्ती में है अशराफ़े-दुश्मनी
क़ातिल 'हुसैन' का है मुआविन 'यज़ीद' का

अमोज़गारे-कुफ़्र हो जब पीर का चलन
ईमान क्या रहेगा सलामत मुरीद का

फ़ुर्सत न दी ज़बान को हासिल के शुक्र ने
यानि कि हो सका न तक़ाज़ा मज़ीद का

तारीक़ ही रही मिरी दुनियाए-आरज़ू
बे-सूद ही चराग़ जलाया उमीद का

हाथों से वो भी छूट गया इज़तिराब में
ले दे के था जो एक सहारा उमीद का

बचता मैं तल्ख़-कामिए-अंजाम से कहां
आग़ाज़ से फ़रेब-ज़दा था उमीद का

धोने पड़ेंगे जान से हाथ ऐ 'वफ़ा' हमें
होगा यही मआल तमन्नाऐ-दीद का।