(राग तैलंग-ताल त्रिताल)
अरे, तू क्यों अमूल्य तन खोवै?
क्यों अनित्य सुखरहित जगत की ममता-निशिमें सोवै?
क्यों अघ-मूल भोग-सुख-कारण मानव-जन्म बिगोवै?
शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-हित क्यों अतृप्त हो रोवै?
श्रीहरिका अति सरस भजन कर क्यों न पाप-मल धोवे?
हरिपद-पंकजका मधुकर बन क्यों न धन्य तू होवै?