अरे काश्वी
तुम चुप बैठीं क्या हो सोच रहीं
देखा तुमने -
धूप पेड़ पर ऊँघ रही है
इधर गिलहरी
नये फूल को सूँघ रही है
घास हँस रही -
तुमने है क्या देखा उसे नहीं
टेर रहा है
पीपल पर बैठा सगुनापाखी
बोल तुम्हारे ही देंगे
उसके सुख की साखी
उधर झील पर
हवा बह रही - लहरें संग बहीं
छोड़ सोचना, हँसो काश्वी -
धूप झरेगी फिर
तुलसीचौरे पर
पूजा की जोत धरेगी चिर
जहाँ अँधेरा
रखो काश्वी, अपनी हँसी वहीं