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अर्ज़ ओ समाँ कहाँ तेरी वुसअत को पा सके / ख़्वाजा मीर दर्द
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विनय प्रजापति (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:47, 30 दिसम्बर 2008 का अवतरण
अर्ज़ ओ समाँ कहाँ तेरी वुसअत को पा सके
मेरा ही दिल है वो कि जहाँ तू समाँ सके
वेहदत में तेरी हर्फ़ दुई का न आ सके
आईना क्या मजाल तिझे मुंह दिखा सके
मैं वो फ़तादा हूँ कि बग़ैर अज़ फ़ना मुझे
नक़्श ए क़दम की तरहा न कोई उठा सके
क़ासिद नहीं ये काम तेरा अपनी राह ले
उस का प्याम दिल के सिवा कौन ला सके
ग़ाफ़िल खुदा की याद पे मत भूल ज़ीन्हार
अपने तईं भुला से अगर तू भुला सके
यारब ये क्या तिलिस्म है इद्राक ओ फ़ेहम याँ
दौड़े हज़ार,आप से बाहर न जा सके
गो बहस करके बात बिठाई प क्या हुसूल
दिल सा उठा ग़िलाफ़ अगर तू उठा सके
इतफ़ा-ए-नार-ए-इश्क़ न हो आब-ए-अश्क से
ये आग वो नहीं जिसे पानी बुझा सके
मस्त-ए-शराब-ए-इश्क़ वो बेखुद है जिसको हश्र
ऐ दर्द चाहे लाये बखुद पर न ला सके