भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अलविदा दोस्त नई सुबह तक / ज्ञान प्रकाश चौबे

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:10, 21 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्ञान प्रकाश चौबे |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> बाज समय की …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाज समय की कोठरी से
निकल एक दिन
किसी छोटे बच्चे की उॅंगली पकड़
ब्रह्माण्ड को इस छोर से उस छोर तक
नापते हुए चहलकदमी में
हरएक कोने में सोई उदासी को
तीखी चिकोटी से जगाते हुए
बाँस के झुरमुठों मे बदल दूँगा

कोई शिकवा या शिकायत नहीं करूँगा
न तुमसे न अपने आप से
कविताएँ लिखूँगा
कहानियों के समय में कहानियाँ
नाटक करूँगा जितना तुम कहोगे
कहोगे तो रच दूँगा
ग्रंथ के ग्रंथ या पुराण-महापुराण भी
हवा को धूप
धूप को नदी
नदी को आसमान
आसमान को हथेली भी कहोगे तो कहूँगा
अपने लिए सिर्फ़
वो पहला ख़त बचाऊँगा
जिसमें लिखा है
तुम मुझे अच्छे लगते हो

तुम्हारी प्रार्थनाएँ और मंत्र
गीतों में ढालते हुए
निकल जाऊँगा
मटर के नीले-सफ़ेद फूलों के बीच से
गुज़रते हुए भविष्य की पगडण्डियों से
रंगो की तमाम सम्भावनाएँ
छींट दूँगा तुम्हारी
बंजर घोषित ज़मीनों पर
इंकार करते हुए उन तमाम फ़ैसलों से
जिनमें कहा गया कि
हमारी संवेदनाए पुराने दिनों की बात हैं
मैं ला खड़ा करूँगा कठघरे में बतौर गवाह
उन छोटी चिड़ियों को
जिनहोंने किसी जंगल की तह में
दबा रखें हैं
नई दुनिया के सैकड़ों बीज
दस्तावेज़ के तौर पर पेश करूँगा
उन हज़ारों-लाखों प्रेम-पत्रों को
जो समय के विकटतम भागों में लिखे गए

जानता हूँ मैं
समय घात करेगा मेरे साथ
और इतिहास धोखे की भूमिका लिखते हुए
पसार देगा मेरे सामने
रास्तों की कई टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें
लेकिन सबसे बचते हुए
स्याह आसमान के किसी कोने में
छुपा दूँगा धूप की कोई टुकड़ी
अन्धेरे की जेब में ही
रोशनी छुपा दूँगा चाँद की
उसकी बेख़बरी से दोस्ती गाँठते हुए
इसी तरह थोड़ी नमी
तुम्हारी आँख की किसी कोठरी में छुपाकर
सारे राज बता दूँगा
किसी फूल, किसी पेड़ या किसी नदी से
और कहूँगा तुमसे
अलविदा दोस्त नई सुबह तक