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अलस चिंतन / रणजीत

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तुम थोड़े दिन यहाँ रह क्या गई हो
मेरी आदत ही बिगाड़ गई हो
जो थोड़ी बहुत कर्मण्यता थी मुझमें
वह भी झाड़ गई हो

देखो ना ! मन नहीं लग रहा है बड़ी देर से
लगातार झड़ी लगी हुई है सबेर से
पर उठ कर रेडियो तक लगाने का मन नहीं है
कहने से लगा दे, आसपास ऐसा कोई जन नहीं है
इच्छा होती है, तुम आओ और लगा दो
बड़ी ठंडक है, पास बैठो, भगा दो !
यह बरसात है कि रुक ही नहीं रही है
तुम्हारे वहाँ भी बरस रहा है, या नहीं है?

इच्छा होती है कोई हो जो गरम-गरम चाय पिलाए
दूध पड़ा है, उठ कर बना लूँ ? भाड़ में जाए !
ख़ुद बनानी पड़े तो फिर मज़ा ही क्या है?
हाँ, बना सकता हूँ अगर कोई दूसरा चाहे
चाय का तो वक़्त ही है, अभी बजा ही क्या है ?
बनानी हो, तो किसी के लिए बनाएँ
या फिर कोई बनाए, जब हम चाहें
मन का भी यह कैसा अजीब तर्क है
आखिर इस बनाने और उस बनाने में क्या फ़र्क है ?

थोड़ी देर पहले मैं आत्म-विश्लेषण कर रहा था
कि बहुत आलसी हो गया हूँ मैं,
इस निष्कर्ष से डर रहा था
देख तो सही, मैंने अपने आप से कहा
सारी रात तू ठंड से सिकुड़ता पड़ा रहा
बिछौने की चद्दर ही खींच कर ओढ़ ली
उठकर तुझसे कम्बल तक न लिया गया ?
लेकिन अब इस तर्क ने मुझे सहारा दे दिया है
आलस को नाम एक प्यारा दे दिया है
वासन्ती बयार का स्पर्श पा कर भी
फूल चलता नहीं है, सिर्फ़ खिलता है
यह आलस है या स्नेह-शिथिलता है ?

वाह ! जिसे आलस समझ रहा था
वह प्यार निकला !
जिसे अकर्मण्यता समझे था
वह कर्म का शृंगार निकला
मन है कि उपयोगिता नहीं चाहता
शृंगार चाहता है
कर्म को सीमित नहीं चाहता अपने तक
उसका विस्तार चाहता है

विस्तार तुम आओ तो मिलें
वरना यह बिस्तर ही भला
कौन इस ठंडे मौसम में इस पर से हिले !
बिस्तर, जिस पर अब तक
तुम्हारे टूटे हुए इक्के-दुक्के केश बिछे हैं
स्मृति-शेष हैं जो अब
वे सारे उत्तप्त-श्वास आवेश बिछे हैं !