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अलिफ़ बे पे / तलअत इरफ़ानी


नीलगूं पत्थर सलेटों पर
गज़ालों की तरह आंखें बिछाये
हम लकीरें खेंचते,
आपस में कुछ बतिया रहे थे।
माहसिल किन किन लकीरों का
कहाँ किस हर्फ़ मैं कितना घाना है,
बस यही
चंचल परिंदों की अदा में
बोल कर समझा रहे थे।
उस घड़ी उस्ताद साहिब को
ग़ज़ल उतरी हुयी थी,
असमान पर बादलों के झुंड
गोते खा रहे थे।

हम अभी शायद
अलिफ़ बे पे ही लिखना सीख पाए थे
कि जब इस्कूल में सैलाब आया
गाँव के कच्चे मकानों से निकल कर
कोई बहार आ न पाया।

मैं, महम्मद, राम, गौतम और नानक,
हम सभी को इक नयी तरकीब सूझी।
पीठ पर बस्ती उठाये,
तख्तियां सीनों से चिपकाये
गली के मोड़ तक हम तैर आए।
दम ब दम इस्कूल की गिरती हुयी छत
हम को वापिस लौट आने के इशारे कर रही थी।

हम ने पल भर के लिए सोचा
मगर तब
दफअत्तन, आकाश सन्नाटे में गूंजा,
चौंधियाती आँख से हम
एक दूजे के लिए लपके
मगर सब खो चुका था,
हर कोई चुपचाप अकेला हो चुका था,

मैं, महम्मद, राम, गौतम और नानक,
होश आने पर सभी ने
गाँव की मिटटी को माथे से लगाया।
और अलिफ़ बे पे के लफ्ज़ों को
दिलों के साथ सीनों में सजा कर
अपनी अपनी ज़ात का परचम उठाया।

गो के उसके बाद हम अपनी विरासत खो चुके थे,
हम जमाअत साथियों के नाम लेकिन
दूसरी जगहों पे रौशन हो चुके थे।

दर हकीकत!
उस अलिफ़ बे पे से आगे
आज तक जो कुछ कहीं लिखा पढ़ा हमने
कि सीखा या कहा सब खेल सा था,
आईना इदराक के चेहरे ही से बे मेल सा था।
मैं, महम्मद, राम, गौतम और नानक,
हम कहीं भी हों
मगर अन्दर से हम सब
किस कदर यक्जान हैं
ये तो हमीं पहचानते हैं,
लोग तो अक्सर हमारे
तागडी, तावीज़, कश्का, केस, पगडी
या जनेऊ को ही सुन्नत मानते हैं।

ज़िंदगी गुज़री
मगर लगता है जैसे
आज भी अपनी अपनी सुन्नतों को
पीठ पर बस्तों की सूरत ढो रहे हैं,
आज भी इस्कूल की
गिरती हुयी छत से इशारे हो रहे हैं।