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अलि दसे अधर सुगन्ध पाय आनन को / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

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अलि दसे अधर सुगन्ध पाय आनन को,
कानन मे ऎसे चारु चरन चलाए हैँ ।
फाटि गई कँचुकी लगे ते कँट कुँजन के ,
बेनी बरहीन खोली बार छबि छाए हैँ ।
बेग ते गवन कीन्होँ धक धक होत सीनो ,
दीरघ उसासैँ तन स्वेद सरसाए हैँ ।
भली प्रीति पाली बनमाली के बुलाइबे को ,
मेरे हेत आली बहुतेरे दुख पाए हैँ ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।