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अवकाश/ सजीव सारथी

सुब्हा की गलियों में
अँधेरा है बहुत,
अभी आँखों को मूंदे रहो,
घडी का अलार्म जगाये अगर,
रख उसके होंठों पे हाथ
चुप करा दो,
काला सूरज,
आसमान पर लटक तो गया होगा,
बाहर शोर सुनता हूँ मैं,
इंसानों का, मशीनों का,
आज खिड़की के परदे मत हटाओ ,
आज पड़े रहने दो, दरवाज़े पर ही,
बासी ख़बरों से सने अखबार को,
किसे चाहिए ये सुब्हा, ये सूरज,
फिर वही धूप, वही साये,
वही भीड़, वही चेहरे,
वही सफर, वही मंजिल,
वही इश्तेहारों से भरा ये शहर,
वही अंधी दौड़ लगाती,
फिर भी थमी- ठहरी सी,
रोजमर्र्रा की ये जिन्दगी ।

नही, आज नही,
आज इसी कमरे में
पड़े रहने दो मुझे,
अपनी ही बाँहों में,
"हम" अतीत की गलियों में घूमेंगे,
गुजरे बीते मौसमों का सुराग ढूँढेंगे,
कुछ रूठे रूठे,
उजड़े बिछड़े ,
सपनों को भी बुलवा लेंगें,
मुझे यकीन है,
कुछ तो जिंदा होंगे जरूर ।

खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से,
जिंदा कर लूंगा फिर, जिन्दगी को मैं ॥