Last modified on 10 फ़रवरी 2011, at 16:59

अवघट घाट / दिनेश कुमार शुक्ल

अब आ रहे हैं दृश्य
पहले से अधिक साफ
अधिक प्रकट

शुरू हो गई है
ऊँची-नीची जमीन
नालों के कटाव
कंकड़ों के ढेर, झाऊ के भीट

मिलती है राह में
मछली सिवार की गंध में
नहा कर लौटती हवा
चादर लपेटती बार-बार
अधेड़ बूढ़ी औरतों की तरह

जूतों में घुस-घुस कर बालू
पदानुभव को करती है किरकिरा
भरता माहौल को भृंग का निनाद

प्रकट होते हैं लोग
शवयात्रा से लौटते निःसंग,
गाँजे की गंध
टूटे वीरान मंदिर
खुली जड़ों वाले दरख्त

भाप-सी उठती है
आभा कहीं दूर
पानी पर किरनें बरसाती हैं
हीरे-पन्ने-मोती
वहीं कहीं सोते हैं
इन्द्रधनुष

चोंच में भर कर
तरल अबूझ मुस्कान
लौटे चले आ रहे हैं
पक्षी
कंठ में
जल की खिलखिलाहट
मुखरित करती आती हैं बच्चियाँ

लगता है
आने वाली है नदी

बच्चों जैसे--डरते
पर हठ करते
झाँकते कुआँ,
उस पार के ऊँचे -
ऊँचे, नदी पर झुके कगार

लगता है
यहाँ नदी गहरी है

वही उतरेंगे पार
अवगाहेंगे वही
यह अवघट घाट
लेकर जो आयेंगे
नदी जितना गहरा मन
जीकर जो आयेंगे
युग भर गहरा जीवन
इस बार।