भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अश्कों में धनक / जावेद अनवर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस रेतले बदन की
झुलसी हुई रगों में
है तेल का तमाशा
और बर्फ़ की तहों में
है सूरजों का गिरिया
या पानियों की दहश्त
या ख़ुशक सालियाँ हैं

महताब से टपकता
तारीकियों का लावा
रुख़्सार दागता है
इस सुबह का सितारा
चिड़ियों के घोंसलों में
बारूद बाँटता है
इन चोटियों पे परचम
अनजान वादियों के
और वादियों पे दाइम
अनजान चोटियों के

सायों की हुक्मरानी
ये मेरे आँसुओं में
रखी हुई धनक है
इस हुस्न की कहानी
नमकीन पानियों की
तसकीन बन रही है
इन सबज़ गुम्बदों पर
बैठे हुए कबूतर
आँखें नहीं झपकते
और बरगदों के पीछे
सोए हुए पैयम्बर
ख़ाबों में जागते हैं

इन आईनों पे मिट्टी
इन खिड़कियों में जाले
ये जाम रेज़ा रेज़ा
ये तिश्ना-लब नवागर
ये बेनवा गदागर
और रेतले बदन की
झुलसी हुई रगों में
है तेल का ख़ज़ाना

इस बर्फ़ की तहों में
इन सूरजों का गिरिया
सैलाब कब बनेगा ?
ये रेत कब धुलेगी ?
इन ख़ुशक टहनियों में
महताब कब बनेगा ?
 
सदियों का बोझ उठाए
सदियों से मुन्तज़िर हैं
क़िरतास-ए-अहमरीं पर
धब्बे से रोशनी के
लारैब-ए-रिसालत
लारैब-ए-सहीफ़े
लेकिन तेरे उजाले
दीमक ही चाटती थी
दीमक ही चाटती है ।