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अष्टादश प्रकरण / श्लोक 31-40 / मृदुल कीर्ति

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अष्टावक्र उवाचः
मुक्तजन का चित्त, चेष्टा में प्रवृत होता नहीं,
हेतु बिन ही ध्यान स्थित, कर्म नाना बहु मही.----३१

मूढ़मति सुन तत्व को , मूढ़ता ही पा सके,
किंतु ज्ञानी, मूढ़वत आभास, गूढ़ में जा सके.----३२

मूढ़ अति अभ्यास पाते , चित की एकाग्रता ,
किंतु ज्ञानी की स्वप्नवत ही, स्वप्न स्थित प्रज्ञता.-----३३

बहु कर्मों से भी परम सुख, अज्ञ को नहीं लब्ध है,
ज्ञानी पुरूष को तत्व से, वही परम सुख उपलब्ध है.-----३४

संसार में अभ्यास से बनते नहीं सिद्धात्मा,
प्रिय पूर्ण बुद्ध प्रपंच दुःख से हीन, शुद्ध है आत्मा.-------३५

अभ्यास रूपी कर्म से , नहीं मोक्ष मिलता मूढ़ को,
कर्म भाव विहीन ज्ञानी, धन्य पाता गूढ़ को.-----३६

अज्ञान- वश निज रूप को, भूला हुआ है, भ्रमित है,
पर जीव ब्रह्म है जानते ही, ब्रह्म मय सुख अमित है.----३७

आधार हीन दुराग्रही मय , जग का पोषक अज्ञ है,
मूल छेदन इस जगत का, कर सके जो विज्ञ है.----३८

दर्शन कहाँ उसे आत्मा का,दृष्ट आलंबन जिसे,
जो दृष्ट को नहीं देखते , अदृष्ट आलंबन उसे.---३९

उनको नहीं सुख शान्ति , चित्त जो रोकते हठ योग से,
आत्म रमणी सहज संयम, शान्ति सत्य प्रयोग से.-----४०