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अष्टादश प्रकरण / श्लोक 71-80 / मृदुल कीर्ति

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अष्टावक्र उवाचः
शम कहाँ पर त्याग अथवा कर्म विधि, शान्ति कहाँ,
अज्ञानता का है पसारा, भ्रमित , भ्रम, भ्रान्ति यहाँ.-----७१
 
कहाँ मोक्ष, बंधन ज्ञानियों को, हर्ष और विषाद है,
सब ब्रह्ममय ब्रह्माण्ड माया, प्रकृति ब्रह्म प्रसाद है.------७२

संसार में पर्यंत बुद्धि, माया की ही माया है,
निष्काम बुद्ध, प्रबुद्ध दृष्टि में, जगत केवल छाया है.----७३

विश्व, विद्या, देह, जग, सब हैं कहाँ, अनुसार भी,
आत्म ज्ञानी के लिए सब व्यर्थ हैं, निःसार भी.-----७४

जड़,मूढ़, कर्मों को त्याग कर भी, लिप्त अंतस में कहीं,
संकल्प और विकल्प मन से मुक्त होते हैं नहीं.------७५

मूढ़ सुनकर आत्म तत्व भी, मूढ़ता नहीं छोड़ते,
निर्विकल्प हो बाह्य से, अंतःकरण नहीं मोड़ते.----७६

जिस ज्ञान से सब ज्ञानियों के, कर्म होते नष्ट हैं,
वे तथापि कर्म रत, पर मन विरत, स्पष्ट है.---७७

निर्विकारी और निर्भय के लिए, कुछ भी नहीं,
तम् कहाँ, ज्योति कहाँ और त्याग आदि कुछ नहीं .-----७८

आत्म ज्ञानी की प्रकृति तो, अनिर्वचन महान है,
कहाँ धैर्य और विवेक है, कहाँ नियम और विधान हैं.----७९

योगी नरक और स्वर्ग, जीवन मुक्ति का इच्छुक नहीं,
बहुत कहना निष्प्रयोजन, योग दृष्टि से कुछ नही.-----८०