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असमय पिता के साए से वंचित पुत्र / ज्योति रीता

असमय पिता के साए से वंचित पुत्र
हो जाता है असमय ही प्रौढ़
वह जिद्द नहीं करता
बेवजह खर्चों से बचता है
बुरी लत जल्दी नहीं लगती
दोस्तों के बीच भी
अलग-थलग-सा चिंतन में पड़ा रहता है
बहुत जल्द है बढ़ी दाढ़ी में
कवि-सा दिखने लगता है
वह समझने लगता है
दुनियादारी का दस्तूर
घर की ज़रूरत
रसोई के खाली डब्बे
माँ की उदासी
बहन की मायूसी
कभी-कभी बेवजह हँसता है
ताकि घर में थोड़ी रौनक बनी रहे
जानता है
डबडबाई आँखों से ही
जीते चले जाना है
ठसाठस दुखों का पहाड़ से
भरे कमरों में झुलस रहा है
फिर भी हँस रहा है

माँ बूढ़ी हो रही है असमय ही
माँ को सफेद पसंद नहीं था कभी
अब सफेदी में लिपटी रहती है
माँ के अंदर का ज्वार ज्ञात है मुझे
पर माँ अब जताती नहीं
सुनी आँखों से देखती रहती है
चौखट की ओर
हर शाम पिता जब लौटते
पसीने के साथ जाफ़रान के गंध से
घर महक उठता
पिता को केसर वाला पान पसंद था
कभी-कभी माँ को भी खिलाते

पिता को गुजरे पाँच बरस हो गये
अब मैं बूढ़ा हो चला हूँ॥