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असमाप्त कथा: असमाप्त पत्र / राजकमल चौधरी

कलकत्ता-प्रवास के हे संगी, योगिराज
भय गेल समाप्त जे कथा, पुनः कहबा के कोज काज?
केवल ‘‘संतोष’’ (की भेटि सकत पुनि हमरा?)
नइँ परोक्षमे सभटा वसन्तसुख सिसोहि लेत कोनो नव भमरा?
किन्तु, कोना हम बान्ही गृह उजड़ल-उखड़ल
अमृत त’ लए गेल छीनि कए समय-देवता अछि बचल गरल
हम स्थिर छी, अनासक्त, स्थितप्रज्ञ, समाधिग्रस्त योगी सन
अतिभोगिता भूखल वेश्या सन हमर आत्मा, अछि क्षयरोगी सन
अकस्मात, घुमइए आकाश, छथि जेम्हर हमर दमयन्ती
ढरकि पड़इए विन्ध्याचल, करय अगस्त्य मुनिसँ बिनती
उठइत अछि ऊपर एकटा रूपलोकित पर्वतीय नगर
मुदा, की पुनः बन्न भय सकत कमलपत्रपुटमे हृदय-भ्रमर?
प्रेम थिक हमरा सभक स्वर्गिक आनन्द, राजसी भोजन
स्मृतिक वनस्पति घीमे छानि मलपुआ खाइ छथि सभ जन
किन्तु प्रेमक वास्तविकता अछि अप्राप्य, दुलर्भ
जेना खिड़कीसँ अबइत सूर्यरश्मि, जेना नीलोहित नभ
रश्मि करइए, स्मृति करइए हमर स्पर्श, मुदा नइँ सूर्य
सूर्य आयत त’ भए जायब हम भस्म

हम मनुक्ख छी, स्मरण अछि एखनउँ धरि
भीजल नयन, सुखायल रक्त अधरक एकटा चेहरा
एकटा अभागलि नारि, जकरा पक्षमे नइँए किछु तर्क
अछि निर्णायक काल, करइए दुर्वह दण्डक घोषणा
जीवनक आस्था चुप्प अछि अनुभवी ओकिल जकाँ
मशीन युगमे भागि जाइ छथि सौन्दर्य्यक सभ साक्षी

ककरा परवाहि छइ? ढहत त’, ढहि जाए कोनो गृह...
हम छी एहि कचहरीक उँघाएल द्वारपाल
भए जाइए निन्न, स्वप्नमे चिकरइ छी-
टूटि जाए सभटा महल, प्रकोष्ठ, देबाल, खिड़की, केबाड़
टूटि जाए, सभटा मोह सभटा बन्धन छूटि जाए...

उठए आत्मासँ प्रश्न-के छलि ‘‘सावित्री’’?
कतए छलि, किअए छलि, हमरासँ छलइ कोन सम्बन्ध?
चन्द्रमाक किरनजाल प्रभातवायुमे बिला गेल
छीनि लेलक स्वार्थी सूर्य सभटा ज्योति, सभटा शान्ति
अन्हार रातिमे कएल प्रतिज्ञा पर करत के दिनमे विश्वास?
कहइए चन्द्रकिरिन-बिदा लिअ, दोसर नइँए उपाय
मृत्युक आँगा हम, अहाँ, ओ सभ छथि निरुपाय
आर कतेक काल धरि ठहरत गुलाबक डारि पर हिमखण्ड?
की अस्तित्वक नाशे थिक सिनेहक एकमात्र दण्ड?
जँ स्थितिक होइतउँ हम विधाता, होइतउँ ब्रह्मा, विश्वकर्मा
त’ पल विपल क्षणक सीमाकेँ बना दितउँ अमर अनन्तधर्मा
मुदा नइँ छी विधाता तइओ, हमर आत्मामे जीवित अछि
एकटा गुलाब, एकटा हिमखण्ड अमर अछि, असीमित अछि
सृष्टिक ई आदिकथा, विश्वक ई मूल नियम
नइँ नाश कए सकत महेश, नइ समाप्त करत यम
अग्नि ज्वालहुँ मे हँसबे करत गुलाब दलक-दल
एहने बहुत किछु लिखबाक अछि...राजकमल