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अस्ताचल रवि / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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अस्ताचल रवि, जल छलछल-छवि,
स्तब्ध विश्वकवि, जीवन उन्मन;
मंद पवन बहती सुधि रह-रह
परिमल की कह कथा पुरातन ।

दूर नदी पर नौका सुन्दर
दीखी मृदुतर बहती ज्यों स्वर,
वहाँ स्नेह की प्रतनु देह की
बिना गेह की बैठी नूतन ।

ऊपर शोभित मेघ-छत्र सित,
नीचे अमित नील जल दोलित;
ध्यान-नयन मन-चिंत्य-प्राण-धन;
किया शेष रवि ने कर अर्पण ।