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अस्तित्व बोध / प्रांजलि अवस्थी

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सूखी जमीन पर बिछे
गीले फूलों के निशान की तरह

रूँधे गले पर ठहरे शब्दों की
विडम्बना कि तरह

प्राचीन इमारतों की इतराती
बुलन्दियों की तरह

प्राचीरों की दीवारों पर उकेरे गये
 प्रेमी युगल के नाम की तरह

ऊँचाई से नीचे कूदी
पुनरावृत्ति करती गूँजती आवाजों की तरह

अस्तित्व का बोध भी
ठहरी हुई, सहमी हुई, लिखी हुई, कही गयी, गढ़ी गयीं
अपनी सभी पीड़ाओं, सांत्वनाओं,
और आकांक्षाओं को भोग कर बार-बार जन्म लेता है ...