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अस्पताल के कमरे से / हरकीरत हीर

वक़्त की फड़फड़ाती आग से
निकलता इक धमाका
जला जाता है हाथों के अक्षर
सपनों की तहरीरें
होंठों पर इक नाम उभरता है
रात सिसकियाँ भरती है
रह रह कर नज़रें
मुहब्बत के दरवाजे खटखटाती हैं

डराने लगता है आइना
दर्द की बेइन्तहा कराहटे
सिहर जाता है मासूम मन
जलन की असहनीय पीड़ा
फफोलों से तिलमिलाता जिस्म
देह बेंधती सुइयाँ
सफेद पोशों की चीरफाड़
ठगे से रह जाते हैं शब्द
संज्ञाशून्य हुई आँखें
एकटक निहारती हैं खामोशियों के जंगल

वक़्त धीरे धीरे मुस्कुराता है
अभी और इम्तहां बाकी है