भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँख़ की क़िस्मत है अब बहता समंदर देखना / हिमायत अली 'शाएर'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:18, 13 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हिमायत अली 'शाएर' }} {{KKCatGhazal}} <poem> आँख़ क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँख़ की क़िस्मत है अब बहता समंदर देखना
और फ़िर इक डूबते सूरज का मंज़र देखना

शाम हो जाए तो दिन का ग़म मनाने के लिए
एक शोला सा मुनव्वर अपने अंदर देखना

रौशनी में अपनी शख़्सियत पे जब भी सोचना
अपने क़द को अपने साए से भी कम-तर देखना

संग-ए-मंज़िल इस्तिआरा संग-ए-मरक़द का न हो
अपने ज़िंदा जिस्म को पत्थर बना कर देखना

कैसी आहट है पस-ए-दीवार आख़िर कौन है
आँख बनता जा रहा है रौज़न-ए-दर देखना

ऐसा लगता है कि दीवारों में दर खुला जाएँगे
साया-ए-दीवार के ख़ामोश तेवर देखना

इक तरफ़ उड़ते अबाबील इक तरफ़ असहाब-ए-फील
अब के अपने काबा-ए-जाँ का मुक़द्दर देखना

सफ़्हा-ए-क़िरतास है या जंग-ख़ुदा आईना
लिख रहे हैं आज क्या अपने सुख़न-वर देखना