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आँखें तो ढूँढती रहीं सपन-सपन-सपन / विनोद तिवारी

आँखें तो ढूँढती रहीं सपन-सपन-सपन
साँसों में किन्तु भर गई अगन-अगन-अगन

दिन गिरता पड़ता हाँफता बस भागता गया
और शाम चीखती रही किरन-किरन-किरन

जब था ये सारा गाँव परेशान बदहवास
कुछ लोग खड़े थे वहाँ मगन-मगन-मगन

बस एक टुकड़ा छाँव मयस्सर न हो सकी
मन में जलन है, तन में है थकन-थकन-थकन

दो ही सवाल थे कि उमर हो गई तमाम
इक भूख-भूख दूसरा क़फ़न-क़फ़न-क़फ़न

आओ कि अब तो अपनी मशालें जला ही लें
वे भी तो काँप कर कहें अमन-अमन -अमन