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आँखें बंद पड़ीं गीजर की फिर भी दहता है पानी / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

आँखें बंद पड़ीं गीज़र की फिर भी दहता है पानी।
उनके तन की तपिश न पूछो कैसे सहता है पानी।

नाज़ुक होठों को छूने तक भूखा रहता बेचारा,
जब तक नहीं नहा लेते वो प्यासा रहता है पानी।

उनके बालों से बिछुए तक जाने में चुप रहता फिर,
कल की आशा में सारा दिन कल-कल कहता है पानी।

एक रेशमी छुवन के पीछे हुआ है ऐसा दीवाना,
सूरज रोज़ बुलाए फिर भी नीचे बहता है पानी।

बाधाएँ जितनी ज़्यादा हों उतना ऊपर चढ़ जाता,
हार न माने इश्क़ अगर सच्चा हो कहता है पानी।