भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया / मुनव्वर राना

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:59, 20 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुनव्वर राना |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> आँखों को इंतज़ा…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया
मैंने दिये को आँधी की मर्ज़ी पे रख दिया

आओ तुम्हें दिखाते हैं अंजामे-ज़िंदगी
सिक्का ये कह के रेल की पटरी पे रख दिया

फिर भी न दूर हो सकी आँखों से बेवगी
मेंहदी ने सारा ख़ून हथेली पे रख दिया

दुनिया क्या ख़बर इसे कहते हैं शायरी
मैंने शकर के दाने को चींटी पे रख दिया

अंदर की टूट -फूट छिपाने के वास्ते
जलते हुए चराग़ को खिड़की पे रख दिया

घर की ज़रूरतों के लिए अपनी उम्र को
बच्चे ने कारख़ाने की चिमनी पे रख दिया

पिछला निशान जलने का मौजूद था तो फिर
क्यों हमने हाथ जलते अँगीठी पे रख दिया