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आँसू / जयशंकर प्रसाद

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इस करुणा कलित हृदय में<br />अब विकल रागिनी बजती<br />क्यों हाहाकार स्वरों में<br />वेदना असीम गरजती?<br /><br />मानस सागर के तट पर<br />क्यों लोल लहर की घातें<br />कल कल ध्वनि से हैं कहती<br />कुछ विस्मृत बीती बातें?<br /><br />आती हैं शून्य क्षितिज से <br />क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी<br />टकराती बिलखाती-सी<br />पगली-सी देती फेरी?<br /><br />क्यें व्यथित व्योमगंगा-सी<br />छिटका कर दोनों छोरें<br />चेतना तरंगिनी मेरी<br />लेती हैं मृदल हिलोरें?<br /><br />बस गयी एक बस्ती हैं<br />स्मृतियों की इसी हृदय में<br />नक्षत्र लोक फैला है<br />जैसे इस नील निलय में।<br /><br />ये सब स्फुलिंग हैं मेरी<br />इस ज्वालामयी जलन के<br />कुछ शेष चिह्न हैं केवल<br />मेरे उस महा मिलन के।<br /><br />शीतल ज्वाला जलती हैं<br />ईधन होता दृग जल का<br />यह व्यर्थ साँस चल-चल कर<br />करती हैं काम अनिल का।<br /><br />बाड़वज्वाला सोती थी<br />इस प्रणयसिन्धु के तल में<br />प्यासी मछली-सी आँखें<br />थी विकल रूप के जल में।<br /><br />बुलबुले सिन्धु के फूटे<br />नक्षत्र मालिका टूटी<br />नभ मुक्त कुन्तला धरणी<br />दिखलाई देती लूटी।<br /><br />छिल छिल कर छाले फाड़े<br />मल मल कर मृदुल चरण से<br />धुल धुल कर बह रह जाते <br />* [[आँसू करुणा के कण से।<br /><br जयशंकर प्रसाद />इस विकल वेदना को ले<br />किसने सुख को ललकारा <br />वह एक अबोध अकिंचन<br />बेसुध चैतन्य हमारा।<br /><br />अभिलाषाओं की करवट<br />फिर सुप्त व्यथा का जगना<br />सुख का सपना हो जाना<br />भींगी पलकों का लगना।<br /><br />इस हृदय कमल का घिरना<br />अलि अलकों की उलझन में<br />पृष्ठ १]]* [[आँसू मरन्द का गिरना<br />मिलना निश्वास पवन में।<br /><br />मादक थी मोहमयी थी<br />मन बहलाने की क्रीड़ा<br />अब हृदय हिला देती है<br />वह मधुर प्रेम की पीड़ा।<br /><br />सुख आहत शान्त उमंगें<br />बेगार साँस ढोने में<br />यह हृदय समाधि बना हैं<br />रोती करुणा कोने में।<br /><br />चातक की चकित पुकारें<br />श्यामा ध्वनि सरल रसीली<br />मेरी करुणार्द्र कथा की<br जयशंकर प्रसाद />पृष्ठ २]]टुकड़ी * [[आँसू से गीली।<br /><br जयशंकर प्रसाद />पृष्ठ ३]]अवकाश भला हैं किसको,<br />सुनने को करुण कथाएँ<br />बेसुध जो अपने सुख से<br />जिनकी हैं सुप्त व्यथाएँ<br /><br />जीवन की जटिल समस्या <br />हैं बढ़ी जटा-सी कैसी<br />उड़ती हैं धूल हृदय में<br />किसकी विभूति हैं ऐसी?<br /><br />जो घनीभूत पीड़ा थी<br />मस्तक में स्मृति-सी छायी<br />दुर्दिन में * [[आँसू बनकर<br />वह आज बरसने आयी।<br /><br />मेरे क्रन्दन में बजती<br />क्या वीणा, जो सुनते हो<br जयशंकर प्रसाद />पृष्ठ ४]]धागों से इन * [[आँसू के<br />निज करुणापट बुनते हो।<br जयशंकर प्रसाद />पृष्ठ ५]]<br />रो-रोकर सिसक-सिसक कर<br />कहता मैं करुण कहानी<br />तुम सुमन नोचते सुनते<br />करते जानी अनजानी।<br /><br />मैं बल खाता जाता था<br />मोहित बेसुध बलिहारी<br />अन्तर के तार खिंचे थे<br />तीखी थी तान हमारी<br /><br />झंझा झकोर गर्जन था<br />बिजली थीस नीरदमाला,<br />पाकर इस शून्य हृदय को<br />सबने आ डेरा डाला।<br /><br />घिर जाती प्रलय घटाएँ<br />कुटिया पर आकर मेरी<br />तम चूर्ण बरस जाता था<br />छा जाती अधिक अँधेरी।<br /><br />बिजली माला पहने फिर<br />मुसक्याता था आँगन में<br />हाँ, कौन बरस जाता था<br />रस बूँद हमारे मन में?<br /><br />तुम सत्य रहे चिर सुन्दर!<br />मेरे इस मिथ्या जग के<br />थे केवल जीवन संगी<br />कल्याण कलित इस मग के।<br /><br />कितनी निर्जन रजनी में<br />तारों के दीप जलाये<br />स्वर्गंगा की धारा में<br />उज्जवल उपहार चढायें।<br /><br />गौरव था , नीचे आये<br />प्रियतम मिलने को मेरे<br />मै इठला उठा अकिंचन<br />देखे ज्यों स्वप्न सवेरे।<br /><br />मधु राका मुसक्याती थी<br />पहले देखा जब तुमको<br />परिचित से जाने कब के<br />तुम लगे उसी क्षण हमको।<br /><br />परिचय राका जलनिधि का<br />जैसे होता हिमकर से<br />ऊपर से किरणें आती<br />मिलती हैं गले लहर से।<br /><br />मै अपलक इन नयनों से<br />निरखा करता उस छवि को<br />प्रतिभा डाली भर लाता<br />कर देता दान सुकवि को।<br /><br />निर्झर-सा झिर झिर करता<br />माधवी कुंज छाया में<br />चेतना बही जाती थी<br />हो मन्त्र मुग्ध माया में।<br /><br />पतझड़ था, झाड़ खड़े थे<br />सूखी-सी फूलवारी में<br />किसलय नव कुसुम बिछा कर<br />आये तुम इस क्यारी में।<br /><br />शशि मुख पर घूँघट डाले<br />अंचल में चपल चमक-सी<br />आँखों मे काली पुतली <br />पुतली में श्याम झलक-सी।<br /><br />प्रतिमा में सजीवता-सी<br />बस गयी सुछवि आँखों में<br />थी एक लकीर हृदय में <br />जो अलग रही लाखों में।<br /><br />माना कि रूप सीमा हैं<br />सुन्दर! तव चिर यौवन में<br />पर समा गये थे, मेरे<br />मन के निस्सीम गगन में।<br /><br />लावण्य शैल राई-सा<br />जिस पर वारी बलिहारी<br />उस कमनीयता कला की<br />सुषमा थी प्यारी-प्यारी।<br /><br />बाँधा था विधु को किसने<br />इन काली जंजीरों से<br />मणि वाले फँणियों का मुख<br />क्यों भरा हुआ हीरों से?<br /><br />काली आँखों में कितनी <br />यौवन के मद की लाली<br />मानिक मदिरा से भर दी<br />किसने नीलम की प्याली?<br /><br />तिर रही अतृप्ति जलधि में<br />नीलम की नाव निराली<br />कालापानी वेला-सी<br />हैं अंजन रेखा काली।<br /><br />अंकित कर क्षितिज पटी को<br />तूलिका बरौनी तेरी<br />कितने घायल हृदयों की<br />बन जाती चुतर चितेरी।<br /><br />कोमल कपोल पाली में<br />सीधी सादी स्मित रेखा<br />जानेगा वही कुटिलता<br />जिसमें भौं में बल देखा।<br /><br />विद्रुम सीपी सम्पुट में<br />मोती के दाने कैसे<br />हैं हंस न, शुक यह, फिर क्यो<br />चुगने की मुद्रा ऐसे?<br /><br />विकसित सरजित वन-वैभव<br />मधु-ऊषा के अंचल में<br />उपहास करावे अपना<br />जो हँसी देख ले पल में!<br /><br />मुख-कमल समीप सजे थे<br />दो किसयल से पुरइन के<br />जलबिन्दु सदृश ठहरे कब<br />उन कानों में दुख किनके?<br /><br />थी किस अनंग के धनु की<br />वह शिथिल शिंजिनी दुहरी<br />अलबेली बाहुलता या<br />तनु छवि सर की नव लहरी?<br /><br />चंचला स्नान कर आवे<br />चंद्रिका पर्व में जैसी<br />उस पावन तन की शोभा<br />आलोक मधुर थी ऐसी!<br /><br />छलना थी, तब भी मेरा<br />उसमें विश्वास घना था<br />उस माया की छाया में<br />कुछ सच्चा स्वयं बना था।<br /><br />वह रूप रूप ही केवल<br />या रहा हृदय भी उसमें<br />जड़ता की सब माया थी<br />चैतन्य समझ कर मुझमें।<br /><br />मेरे जीवन की उलझन<br />बिखरी थी उनकी अलकें<br />पी ली मधु मदिरा किसने<br />थी बन्द हमारी पलकें।<br /><br />ज्यों-ज्यों उलझन बढ़ती थी<br />बस शान्ति विहँसती बैठी<br />उस बन्धन में सुख बँधता<br />करुणा रहती थी ऐंठी।<br /><br />हिलते द्रुमदल कल किसलय<br />देती गलबाँही डाली<br />फूलों का चुम्बन, छिड़ती<br />मधुप की तान निराली।<br /><br />मुरली मुखरित होती थी<br />मुकुलों के अधर बिहँसते<br />मकरन्द भार से दब कर<br />श्रवणों में स्वर जा बसते।<br /><br />परिरम्भ कुम्भ की मदिरा<br />निश्वास मलय के झोंके<br />मुख चन्द्र चाँदनी जल से<br />मैं उठता था मुँह धोके।<br /><br />थक जाती थी सुख रजनी<br />मुख चन्द्र हृदय में होता<br />श्रम सीकर सदृश नखत से<br />अम्बर पट भींगा होता।<br /><br />सोयेगी कभी न वैसी<br />फिर मिलन कुंज में मेरे<br />चाँदनी शिथिल अलसायी<br />सुख के सपनों से तेरे।<br /><br />लहरों में प्यास भरी है<br />है भँवर पात्र भी खाली<br />मानस का सब रस पी कर<br />लुढ़का दी तुमने प्याली।<br /><br />किंजल्क जाल हैं बिखरे<br />उड़ता पराग हैं रूखा<br />हैं स्नेह सरोज हमारा<br />विकसा, मानस में सूखा।<br /><br />छिप गयी कहाँ छू कर वे<br />मलयज की मृदु हिलोरें<br />क्यों घूम गयी हैं आ कर<br />करुणा कटाक्ष की कोरें।<br /><br />विस्मृति हैं, मादकता हैं<br />मूचर्छना भरी हैं मन में<br />कल्पना रही, सपना था<br />मुरली बजती निर्जन में।<br /><br />हीरे-सा हृदय हमारा<br />कुचला शिरिष कोमल ने<br />हिमशीतल प्रणय अनल बन<br />अब लगा विरह से जलने।<br /><br />अलियों से आँख बचा कर<br />जब कुंज संकुचित होते<br />धुँधली संध्या प्रत्याशा<br />हम एक-एक को रोते।<br /><br />जल उठा स्नेह, दीपक-सा,<br />नवनीत हृदय था मेरा<br />अब शेष धूमरेखा से <br />चित्रित कर रहा अँधेरा।<br /><br />नीरव मुरली, कलरव चुप<br />अलिकुल थे बन्द नलिन में<br />कालिन्दी वही प्रणय की<br />इस तममय हृदय पुलिन में।<br /><br />कुसुमाकर रजनी के जो<br />पिछले पहरों में खिलता<br />उस मृदुल शिरीष सुमन-सा<br />मैं प्रात धूल में मिलता।<br /><br />व्याकुल उस मधु सौरभ से<br />मलयानिल धीरे-धीरे<br />निश्वास छोड़ जाता हैं<br />अब विरह तरंगिनि तीरे।<br /><br />चुम्बन अंकित प्राची का<br />पीला कपोल दिखलाता<br />मै कोरी आँख निरखता<br />पथ, प्रात समय सो जाता।<br /><br />श्यामल अंचल धरणी का<br />भर मुक्ता * [[आँसू कन से<br />छूँछा बादल बन आया<br />मैं प्रेम प्रभात गगन से।<br /><br />विष प्याली जो पी ली थी<br />वह मदिरा बनी नयन में<br />सौन्दर्य पलक प्याले का<br />अब प्रेम बना जीवन में।<br /><br />कामना सिन्धु लहराता<br />छवि पूरनिमा थी छाई<br />रतनाकर बनी चमकती<br />मेरे शशि की परछाई।<br /><br />छायानट छवि-परदे में<br />सम्मोहन वेणु बजाता<br />सन्ध्या-कुहुकिनी-अंचल में<br />कौतुक अपना कर जाता।<br /><br />मादकता से आये तुम<br />संज्ञा से चले गये थे<br />हम व्याकुल पड़े बिलखते<br />थे, उतरे हुए नशे से।<br /><br />अम्बर असीम अन्तर में<br />चंचल चपला से आकर<br />अब इन्द्रधनुष-सी आभा<br />तुम छोड़ गये हो जाकर।<br /><br />मकरन्द मेघ माला-सी<br />वह स्मृति मदमाती आती<br />इस हृदय विपिन की कलिका<br />जिसके रस से मुसक्याती।<br /><br />हैं हृदय शिशिरकण पूरित<br />मधु वर्षा से शशि! तेरी<br />मन मन्दिर पर बरसाता<br />कोई मुक्ता की ढेरी।<br /><br />शीतल समीर आता हैं<br />कर पावन परस तुम्हारा<br />मैं सिहर उठा करता हूँ<br />बरसा कर आँसू धारा<br /><br />मधु मालतियाँ सोती हैं<br />कोमल उपधान सहारे<br />मैं व्यर्थ प्रतीक्षा लेकर<br />गिनता अम्बर के तारे।<br /><br />निष्ठर! यह क्या छिप जाना?<br />मेरा भी कोई होगा<br />प्रत्याशा विरह-निशा की<br />हम होगे औ' दुख होगा।<br /><br />जब शान्त मिलन सन्ध्या को<br />हम हेम जाल पहनाते<br />काली चादर के स्तर का<br />खुलना न देखने पाते।<br /><br />अब छुटता नहीं छुड़ाये<br />रँग गया हृदय हैं ऐसा<br />आँसू से धुला निखरता<br />यह रंग अनोखा कैसा!<br /><br /><br />कामना कला की विकसी <br />कमनीय मूर्ति बन तेरी<br />खिंचती हैं हृदय पटल पर<br />अभिलाषा बनकर मेरी।<br /><br />मणि दीप लिये निज कर में<br />पथ दिखलाने को आये<br />वह पावक पुंज हुआ आव<br />किरनों की लट बिखराये।<br /><br />बढ गयी और भी ऊँठी<br />रूठी करुणा की वीणा<br />दीनता दर्प बन बैठी<br />साहस से कहती पीड़ा।<br /><br />यह तीव्र हृदय की मदिरा<br />जी भर कर-छक कर मेरी<br />अब लाल आँख दिखलाकर<br />मुझको ही तुमने फेरी।<br /><br />नाविक! इस सूने तट पर<br />किन लहरों में खे लाया<br />इस बीहड़ बेला मे क्या<br />अब तक था कोई आया।<br /><br />उम पार कहाँ फिर आऊँ<br />तम के मलीन अंचल में <br />जीवन का लोभ नहीं, वह<br />वेदना छद्ममय छल में।<br /><br />प्रत्यावर्तन के पथ में<br />पद-चिह्न न शेष रहा हैं।<br />डूबा हैं हृदय मरूस्थल<br />आँसू नद उमड़ रहा हैं।<br /><br />अवकाश शून्य फैला है<br />है शक्ति न और सहारा<br />अपदार्थ तिरूँगा मैं क्या<br />हो भी कुछ कूल किनारा।<br /><br />तिरती थी तिमिर उदधि में<br />नाविक! यह मेरी तरणी<br />मुखचन्द्र किरण से खिंचकर<br />आती समीप हो धरणी।<br /><br />सूखे सिकता सागर में<br />यह नैया मेरे मन की<br />आँसू का धार बहाकर<br />खे चला प्रेम बेगुन की।<br /><br />यह पारावार तरल हो<br />फेनिल हो गरल उगलता<br />मथ जाला किस तृष्णा से<br />तल में बड़वानल जलता।<br /><br />निश्वास मलय में मिलकर<br />छाया पथ छू आयेगा<br />अन्तिम किरणें बिखराकर<br />हिमकर भी छिप जायेगा।<br /><br />चमकूँगा धूल कणों में<br />सौरभ हो उड़ जाऊँगा<br />पाऊँगा कहीं तुम्हें तो<br />ग्रहपथ मे टकराऊँगा।<br /><br />इस यान्त्रिक जीवन में क्या<br />ऐसी थी कोई क्षमता<br />जगती थी ज्योति भरी-सी।<br />तेरी सजीवता ममता।<br /><br />हैं चन्द्र हृदय में बैठा<br />उस शीतल किरण सहारे<br />सौन्दर्य सुधा बलिहारी<br />चुगता चकोर अंगारे।<br /><br />बलने का सम्बल लेकर <br />दीपक पतंग से मिलता<br />जलने की दीन दशा में<br />वह फूल सदृश हो खिलता!<br /><br />इस गगन यूथिका वन में<br />तारे जूही से खिलते<br />सित शतदल से शशि तुम क्यों<br />उनमे जाकर हो मिलते?<br /><br />मत कहो कि यही सफलता<br />कलियों के लघु जीवन की<br />मकरंद भरी खिल जायें<br />तोड़ी जाये बेमन की।<br /><br />यदि दो घड़ियों का जीवन<br />कोमल वृन्तों में बीते<br />कुछ हानि तुम्हारी हैं क्या<br />चुपचाप चू पड़े जीते!<br /><br />सब समुन मनोरथ अंजलि<br />बिखरा दी इन चरणों में<br />कुचलो न कीट-सा, इनके<br />कुछ हैं मकरन्द कणों में।<br /><br />निर्मोह काल के काले-<br />पट पर कुछ अस्फुट रेखा<br />सब लिखी पड़ी रह जाती <br />सुख दुख मय जीवन रेखा।<br /><br />दुख सुख में उठता गिरता<br />संसार तिरोहित होगा<br />मुड़कर न कभी देखेगा<br />किसका हित अनहित होगा।<br /><br />मानस जीवन वेदी पर<br />परिणय हो विरह मिलन का <br />दुख सुख दोनों नाचेंगे<br />हैं खेल आँख का मन का।<br /><br />इतना सुख ले पल भर में<br />जीवन के अन्तस्तल से<br />तुम खिसक गये धीरे-से<br />रोते अब प्राण विकल से।<br /><br />क्यों छलक रहा दुख मेरा<br />ऊषा की मृदु पलकों में<br />हाँ, उलझ रहा सुख मेरा<br />सन्ध्या की घन अलकों में।<br /><br />लिपटे सोते थे मन में<br />सुख दुख दोनों ही ऐसे<br />चन्द्रिका अँधेरी मिलती<br />मालती कुंज में जैसे।<br /><br />अवकाश असीम सुखों से<br />आकाश तरंग बनाता<br />हँसता-सा छायापथ में<br />नक्षत्र समाज दिखाता।<br /><br />नीचे विपुला धरणी हैं<br />दुख भार वहन-सी करती<br />अपने खारे आँसे से<br />करुणा सागर को भरती।<br /><br />धरणी दुख माँग रही हैं<br />आकाश छीनता सुख को<br />अपने को देकर उनको<br />हूँ देख रहा उस मुख को।<br /><br />इतना सुख जो न समाता<br />अन्तरिक्ष में, जल थल में<br />उनकी मुट्ठी में बन्दी<br />था आश्वासन के छल में।<br /><br />दुक क्या था उनको, मेरा<br />जो सुख लेकर यों भागे<br />सोते में चुम्बन लेकर<br />जब रोम तनिक-सा जागे।<br /><br />सुख मान लिया करता था<br />जिसका दुख था जीवन में<br />जीवन में मृत्यु बसी हैं<br />जैसे बिजली हो घन में।<br /><br />उनका सुख नाच उठा हैं<br />यह दुख द्रुम दल हिलने से<br />ऋंगार चमकता उनका<br />मेरी करुणा मिलने से।<br /><br />हो उदासीन दोनों से <br />दुख सुख से मेल कराये<br />ममता की हानि उठाकर<br />दो रुठे हुए मनाये।<br /><br />चढ़ जाय अनन्त गगन पर<br />वेदना जलद की माला<br />रवि तीव्र ताप न जलाये<br />हिमकर को हो न उजाला।<br /><br />नचती है नियति नटी-सी<br />कुन्दक-क्रीड़ा-सी करती<br />इस व्यथित विश्व आँगन में<br />अपना अतृप्त मन भरती।<br /><br />सन्ध्या की मिलन प्रतिक्षा <br />कह चलती कुछ मनमानी<br />ऊषा की रक्त निराशा<br />कर देती अन्त कहानी।<br /><br />"विभ्रम मदिरा से उठकर<br />आओ तम मय अन्तर में<br />पाओगे कुछ न,टटोलो<br />अपने बिन सूने घर में।<br /><br />इस शिथिल आह से खिंचकर<br />तुम आओगे-आओगे<br />इस बढ़ी व्यथा को मेरी<br />रोओगे अपनाओगे।"<br /><br />वेदना विकल फिर आई<br />मेरी चौदहो भुवन में<br />सुख कहीं न दिया दिखाई<br />विश्राम कहाँ जीवन में!<br /><br />उच्छ्वास और आँसू में<br />विश्राम थका सोता हैं<br />रोई आँखों में निद्रा<br />बनकर सपना होता हैं।<br /><br />निशि, सो जावें जब उर में<br />ये हृदय व्यथा आभारी<br />उनका उन्माद सुनहला<br />सहला देना सुखकारी।<br /><br />तुम स्पर्श हीन अनुभव-सी<br />नन्दन तमाल के तल से<br />जग छा दो श्याम-लता-सी<br />तन्द्रा पल्लव विह्वल से।<br /><br />सपनों की सोनजुही सब<br />बिखरें, ये बनकर तारा<br />सित सरसित से भर जावे<br />वह स्वर्गंगा की धारा<br /><br />नीलिमा शयन पर बैठी<br />अपने नभ के आँगन में<br />विस्मृति की नील नलिन रस<br />बरसो अपांग के घन से।<br /><br />चिर दग्ध दुखी यह वसुधा<br />आलोक माँगती तब भी<br />तम तुहिन बरस दो कन-कन<br />यह पगली सोये अब भी।<br /><br />विस्मृति समाधि पर होगी<br />वर्षा कल्याण जलद की<br />सुख सोये थका हुआ-सा<br />चिन्ता छुट जाय विपद की।<br /><br />चेतना लहर न उठेगी<br />जीवन समुद्र थिर होगा<br />सन्ध्या हो सर्ग प्रलय की<br />विच्छेद मिलन फिर होगा।<br /><br />रजनी की रोई आँखें<br />आलोक बिन्दु टपकातीं<br />तम की काली छलनाएँ<br />उनको चुप-चुप पी जाती।<br /><br />सुख अपमानित करता-सा<br />जब व्यंग हँसी हँसता हैं<br />चुपके से तब मत रो तू<br />यब कैसी परवशता हैं।<br /><br />अपने आँसू की अंजलि<br />आँखो से भर क्यों पीता<br />नक्षत्र पतन के क्षण में <br />उज्जवल होकर है जीता।<br /><br />वह हँसी और यह आँसू<br />घुलने दे-मिल जाने दे<br />बरसात नई होने दे<br />कलियों को खिल जाने दे।<br /><br />चुन-चुन ले रे कन-कन से<br />जगती की सजग व्यथाएँ<br />रह जायेंगी कहने को<br />जन-रंजन-करी कथाएँ।<br /><br />जब नील दिशा अंचल में<br />हिमकर थक सो जाते हैं<br />अस्ताचल की घाटी में<br />दिनकर भी खो जाते हैं।<br /><br />नक्षत्र डूब जाते हैं<br />स्वर्गंगा की धारा में<br />बिजली बन्दी होती जब<br />कादम्बिनी की कारा में।<br /><br />मणिदीप विश्व-मन्दिर की<br />पहने किरणों को माला<br />तुम अकेली तब भी<br />जलती हो मेरी ज्वाला।<br /><br />उत्ताल जलधि वेला में<br />अपने सिर शैल उठाये<br />निस्तब्ध गगन के नीचे<br />छाती में जलन छिपाये<br /><br />संकेत नियति का पाकर<br />तम से जीवन उलझाये<br />जब सोती गहन गुफा में <br />चंचल लट को छिटकाये।<br /><br />वह ज्वालामुखी जगत की<br />वह विश्व वेदना बाला<br />तब भी तुम सतत अकेली <br />जलती हो मेरी ज्वाला!<br /><br />इस व्यथित विश्व पतझड़ की<br />तुम जलती हो मृदु होली<br />हे अरुणे! सदा सुहानिगि<br />मानवता सिर की रोली।<br /><br />जीवन सागर में पावन<br />बडवानल की ज्वाला-सी<br />यह सारा कलुष जलाकर<br />तुम जलो अनल बाला-सी।<br /><br />जगद्वन्द्वों के परिणय की<br />हे सुरभिमयी जयमाला<br />किरणों के केसर रज से<br />भव भर दो मेरी ज्वाला।<br /><br />तेरे प्रकाश में चेतन-<br />संसार वेदना वाला,<br />मेरे समीप होता है<br />पाकर कुछ करुण उजाला।<br /><br />उसमें धुँधली छायाएँ<br />परिचय अपना देती हैं<br />रोदन का मूल्य चुकाकर<br />सब कुछ अपना लेती हैं।<br /><br />निर्मम जगती को तेरा<br />मंगलमय मिले उजाला<br />इस जलते हुए हृदय को<br />कल्याणी शीतल ज्वाला।<br /><br />जिसके आगे पुलकित हो<br />जीवन हैं सिसकी भरता<br />हाँ मृत्यु नृत्य करती हैं<br />मुस्क्याती खड़ी अमरता ।<br /><br />वह मेरे प्रेम विहँसते<br />जागो मेरे मधुवन में <br />फिर मधुर भावनाओं का <br />कवरव हो इस जीवन में।<br /><br />मेरी आहों में जागो<br />सुस्मित में सोनेवाले<br />अधरों से हँसते-हँसते<br />आँखों से रोनेवाले।<br /><br />इस स्वप्नमयी संसृत्ति के<br />सच्चे जीवन तुम जागो<br />मंगल किरणों से रंजित<br />मेरे सुन्दरतम जागो।<br /><br />अभिलाषा के मानस में<br />सरसिज-सी आँखे खोलो<br />मधुपों से मधु गुंजारो<br />कलरव से फिर कुछ बोलो।<br /><br />आशा का फैल रहा हैं<br />यह सूना नीला अंचल<br />फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे<br />उसमें करुणा हो चंचल<br /><br />मधु संसृत्ति की पुलकावलि<br />जागो, अपने यौवन में<br />फिर से मरन्द हो<br />कोमल कुसुमों के वन में।<br /><br />फिर विश्व माँगता होवे<br />ले नभ की खाली प्याली<br />तुमसे कुछ मधु की बूँदे<br />लौटा लेने को लाली।<br /><br />फिर तम प्रकाश झगड़े में<br />नवज्योति विजयिनि होती<br />हँसता यह विश्व हमारा<br />बरसाता मंजुल मोती।<br /><br />प्राची के अरुण मुकुर में<br />सुन्दर प्रतिबिम्ब तुम्हारा<br />उस अलस उषा में देखूँ<br />अपनी आँखों का तारा।<br /><br />कुछ रेखाएँ हो ऐसी<br />जिनमें आकृति हो उलझी<br />तब एक झलक! वह कितनी<br />मधुमय रचना हो सुलझी।<br /><br />जिसमें इतराई फिरती<br />नारी निसर्ग सुन्दरता<br />छलकी पड़ती हो जिसमें<br />शिशु की उर्मिल निर्मलता<br /><br />आँखों का निधि वह मुख हो<br />अवगुंठन नील गगन-सा<br />यह शिथिल हृदय ही मेरा<br />खुल जावे स्वयं मगन-सा।<br /><br />मेरी मानसपूजा का<br />पावन प्रतीक अविचल हो<br />झरता अनन्त यौवन मधु<br />अम्लान स्वर्ण शतदल हो।<br /><br />कल्पना अखिल जीवन की<br />किरनों से दृग तारा की<br />अभिषेक करे प्रतिनिधि बन<br />आलोकमयी धारा की।<br /><br />वेदना मधुर हो जावे<br />मेरी निर्दय तन्मयता <br />मिल जाये आज हृदय को<br />पाऊँ मैं भी सहृदयता।<br /><br />मेरी अनामिका संगिनि!<br />सुन्दर कठोर कोमलते!<br />हम दोनों रहें सखा ही<br />जीवन-पथ चलते-चलते।<br /><br />ताराओ की वे रातें<br />कितने दिन-कितनी घड़ियाँ<br />विस्मृति में बीत गई वे<br />निर्मोह काल की कड़ियाँ<br /><br />उद्वेलित तरल तरंगें<br />मन की न लौट जावेंगी<br />हाँ, उस अनन्त कोने को<br />वे सच नहला आवेंगी।<br /><br />जल भर लाते हैं जिसको<br />छूकर नयनों के कोने<br />उस शीतलता के प्यासे<br />दीनता दया के दोने।<br /><br />फेनिल उच्छ्वास हृदय के<br />उठते फिर मधुमाया में<br />सोते सुकुमार सदा जो<br />पलकों की सुख छाया में।<br /><br />आँसू वर्षा से सिंचकर<br />दोनों ही कूल हरा हो<br />उस शरद प्रसन्न नदी में<br />जीवन द्रव अमल भरा हो।<br /><br />जैसे जीवन का जलनिधि<br />बन अंधकार उर्मिल हो<br />आकाशदीप-सा तब वह<br />तेरा प्रकाश झिलमिल हो।<br /><br />हैं पड़ी हुई मुँह ढककर<br />मन की जितनी पीड़ाएँ<br />वे हँसने लगें सुमन-सी<br />करती कोमल क्रीड़ाएँ।<br /><br />तेरा आलिंगन कोमल<br />मृदु अमरबेलि-सा फैले<br />धमनी के इस बन्धन में<br />जीवन ही हो न अकेले।<br /><br />हे जन्म जन्म के जीवन<br />साथी संसृति के दुख में<br />पावन प्रभात हो जावे<br />जागो आलस के सुख में ।<br /><br />जगती का कलुष अपावन<br />तेरी विदग्धता पावे<br />फिर निखर उठे निर्मलता<br />यह पाप पुण्य हो जावे।<br /><br />सपनों की सुख छाया में<br />जब तन्द्रालस संसृति है<br />तुम कौन सजग हो आई<br />मेरे मन में विस्मृति है!<br /><br />तुम! अरे, वही हाँ तुम हो<br />मेरी चिर जीवनसंगिनि<br />दुख वाले दग्ध हृदय की<br />वेदने! अश्रुमयि रंगिनि!<br /><br />जब तुम्हें भूल जाता हूँ<br />कुड्मल किसलय के छल में<br />तब कूक हूक-सू बन तुम<br />आ जाती रंगस्थल में।<br /><br />बतला दो अरे न हिचको<br />क्या देखा शून्य गगन में<br />कितना पथ हो चल आई<br />रजनी के मृदु निर्जन में!<br /><br />सुख तृप्त हृदय कोने को<br />ढँकती तमश्यामल छाया<br />मधु स्वप्निल ताराओं की<br />जब चलती अभिनय माया।<br /><br />देखा तुमने तब रुककर<br />मानस कुमुदो का रोना<br />शशि किरणों का हँस-हँसकर<br />मोती मकरन्द पिरोना।<br /><br />देखा बौने जलनिधि का<br />शशि छूने की ललचाना<br />वह हाहाकार मचाना<br />फिर उठ-उठकर गिर जाना।<br /><br />मुँह सिये, झेलती अपनी<br />अभिशाप ताप ज्वालाएँ<br />देखी अतीत के युग की<br />चिर मौन शैल मालाएँ।<br /><br />जिनपर न वनस्पति कोई<br />श्यामल उगने पाती है<br />जो जनपद परस तिरस्कृत<br />अभिशप्त कही जाती हैं।<br /><br />कलियों को उन्मुख देखा<br />सुनते वह कपट कहानी<br />फिर देखा उड़ जाते भी<br />मधुकर को कर मनमानी।<br /><br />फिर उन निराश नयनों की<br />जिनके आँसू सूखे हैं<br />उस प्रलय दशा को देखा <br />जो चिर वंचित भूखे हैं।<br /><br />सूखी सरिता की शय्या<br />वसुधा की करुण कहानी<br />कूलों में लीन न देखी<br />क्या तुमने मेरी रानी?<br /><br />सूनी कुटिया कोने में<br />रजनी भर जलते जाना<br />लघु स्नेह भरे दीपक का<br />देखा है फिर बुझ जाना।<br /><br />सबका निचोड़ लेकर तुम<br />सुख से सूखे जीवन में<br />बरसों प्रभात हिमकन-सा<br />आँसू इस विश्व-सदन में ।<br /><br जयशंकर प्रसाद />पृष्ठ ६]]