Last modified on 24 जनवरी 2020, at 23:16

आंगन / अनिल मिश्र

पीढ़ियों को एक साथ बैठाते हुए
हमेशा ऐसा लगा
मैंने युगों के अंतराल को पाट दिया है

मेरे जीवन में कोई अर्ध विराम नहीं है
कोई पूर्ण विराम नहीं है
विराम है जिस पर कोई लगाम नहीं है

जब भी रुकने को होता है समय
मैं हरे हरे पत्तों वाले
एक घने पेड़ में बदल जाता हूं
जिसका अर्थ संध्याओं का रंग बदल लेना है आपस में
मैं इसी समय बादल के एक बड़े टुकड़े का प्रतिबिम्ब होता हूं
और नदी में जल बढ़ने के संकेत पाते ही
बच्चे तैयार करते हैं कागज की अपनी नावें

मुझे अपने होने का पहली बार अनुभव तब हुआ
जब कविता पाठ करने आए कवि गण
और पता चला
कि खुले आसमान से कम हवादार नहीं है जमीन
हंसने का अर्थ मालती पर खिले फूल हैं
भीषण गर्मी से भले सूख जाए घास
धरती बचा के रखती है जड़ें बारिश के आने तक

सोने या बैठने का कमरा नहीं
किसी घर का फेफड़ा होता हूँ
मैं बनता हूं ईंट और सीमेंट की दीवारों से
दुनिया की कच्ची समझ से
मैं बनता हूं दरअसल
अपने पिता को दिए जा रहे
बच्ची के सबसे मासूम चुम्बन से

चारों दिशाओं से सीमाएं तोड़ता
आसमान खोलता है मेरा मुंह
ताराओं की रोशनी पीने के लिए
सुन सकता हूं किसी की हंसी
महसूस होता है किसी का रोना भी

रोशनी न हो हवा न हो
और दिलों में बचा न हो
संवाद के लिए तनिक भी अवकाश
मेरे पास आना घुटन भरे बन्द कमरों से
खुद अपने को आंगन में बदलने के लिए