भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आंसू अपनी चश्मे तर से निकलें तो/ राज़िक़ अंसारी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:10, 20 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज़िक़ अंसारी }} {{KKCatGhazal}} <poem> आंसू अप...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आंसू अपनी चश्मे तर से निकलें तो
ताज़ा दम हो जाएं घर से निकलें तो

बीमारों को थोड़ा-सा आराम मिले
बाहर दस्ते चारागर से निकलें तो

सच्चाई से पर्दा हट भी सकता है
अख़बारों की छपी ख़बर से निकलें तो

ना मुम्किन है वापस लौटें ख़ाली हाथ
चाँद पकड़ने लेकिन घर से निकलें तो

मंज़र में किरदार हमारा भी आ जाए
शर्त है पहले पस मंज़र से निकलें तो