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आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था / हैदर अली 'आतिश'

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आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था
चेहरा-ए-शाहिद-ए-मक़सूद अयाँ है कि जो था

इश्क़-ए-गुल में वही बुलबुल का फ़ुगाँ है कि जो था
परतव-ए-मह से वही हाल-ए-कताँ है कि जो था

आलम-ए-हुस्न ख़ुदा-दाद-ए-बुताँ है कि जो था
नाज़ ओ अंदाज़ बला-ए-दिल-ओ-जाँ है कि जो था

राह में तेरी शब ओ रोज़ बसर करता हूँ
वही मील और वही संग-ए-निशाँ है कि जो था

रोज़ करते हैं शब-ए-हिज्र को बेदारी में
अपनी आँखों में सुबुक ख़्वाब-ए-गिराँ है कि जो था

एक आलम में हो हर-चंद मसीहा मशहूर
नाम-ए-बीमार से तुम को ख़फ़काँ है कि जो था

दौलत-ए-इश्क़ का गंजीना वही सीना है
दाग़-ए-दिल ज़ख़्म-ए-जिगर मेहर ओ निशाँ है कि जो था

नाज़ ओ अंदाज ओ अदा से तुम्हें शर्म आने लगी
आरज़ी हुस्न का आलम वो कहाँ है कि जो था

असर-ए-मंजिल-ए-मकसूद नहीं दुनिया में
राह में क़ाफिला-ए-रेग-ए-रवाँ है कि जो था

पा-ए-ख़ुम मस्तों की हू हक़ का जो आलम है सो है
सर-ए-मिंबर वही वाइज़ का बयाँ है कि जो था

सोज़िश-ए-दिल से तसलसुल है वहीं आहों का
ऊद के जलने से मुजमिर में धुआँ है कि जो था

रात कट जाती है बातें वही सुनते सुनते
शम-ए-महफिल-ए-सनम चर्ज ज़बाँ है कि जो था

कौन से दिन नई क़ब्रें नहीं इस में बनतीं
ये ख़राबा वह इबरत का मकाँ है कि जो था

दीन ओ दुनिया का तलब-गार हुनूज ‘आतिश’ है
ये गदा साइल-ए-नकद-ए-दो-जहाँ है कि जो था