Last modified on 29 अगस्त 2021, at 00:11

आईने पर धूल भारी हो गयी है / आकिब जावेद

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:11, 29 अगस्त 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आकिब जावेद |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तेरी ख़ुमारी मुझपे भारी हो गई है।
उम्र की मुझपे यूं उधारी हो गई है॥

मुद्दतों से खुद को ही देखा नही
आईने पर धूल भारी हो गई है॥

चाहकर भी मौत अब न मांगता।
ज़िन्दगी अब जिम्मेदारी हो गई है॥

छुपके-छुपके देखते जो आजकल।
उनको भी चाहत हमारी हो गई है॥

जिनके संग जीने की कस्मे खाईं थीं
उनको मेरी ज़ीस्त भारी हो गई है॥

चंद दिन गुज़ारे जो तेरे गेसुओँ में।
कू ब कू चर्चा हमारी हो गई है॥

कह रहा मुझसे है आकिब ये जहाँ
दुश्मनो से खूब यारी हो गई है॥