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आओ चलें / सिद्धेश्वर सिंह

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तुम --
सितारों की ज्यामितीय कला से प्रेरित
अनन्त व्योम की उज्ज्वलता में
व्यवस्थित-गुन्थित
बेहिसाब - बेशुमार - बेशकीमती रेशम ।

मैं --
इस पृथिवी के चारो ओर
उपजी-बिलाती वनस्पतियों की साँस से संचालित
हवा में उड़ता-भटकता हुआ
एक अदना-सा गोला भर कपास ।

यह एक दूरी है
जो खींच लाई है कुछ निकट -- तनिक पास
अपनी दैनन्दिन साधारणता में
भुरभुराता हुआ यह जीवन
लगने लगा है कुछ विशिष्ट - तनिक खास.

इसी में छिपी है निकटता
इसी में है एक दबी-दबी सी आग
इसी में है सात समुद्रों का जल
इसी में हैं वाष्प-ऊष्मा-ऊर्जा के सतत स्रोत

इसी में हैं सात आसमानों की प्रश्नाकुल इच्छाएँ
इसी में रमी है पंचतत्वों से बनी यह देह
जिसमें विराजती हैं कामनाओं की असंख्य अदृश्य नदियाँ
अपने ही बहाव में मुग्ध - अवरुद्ध
एक तट पर विहँसता है राग
और दूसरे पर शान्त मंथर विराग ।

फिर भी भला लगता है
अगर रोज़ाना बरती जा रही भाषा में
तुम्हें कहा जाए रेशम
और स्वयं को कपास ।

अपने करघे से एक धागा तुम उठाओ
मैं अपनी तकली से अलग करूँ ज़रा-सा सूत
बुनें दो-चार बित्ता कपड़ा
और तुरपाई कर बना डालें
दो फुदकती गिलहरियों के लिए नर्म-नाज़ुक मोज़े ।

मौसम के आईने में
कोई छवि नहीं है स्थिर-स्थायी
आँख खोल देखो तो

सर्दियाँ सिर पर सवार होने को हैं
पेड़ों से गिरने लगे हैं चमकीले -चीकने पात
आओ चलें
थामे एक दूजे का हाथ
चलते रहें साथ-साथ ।