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"आओ वापिस चलें / तलअत इरफ़ानी" के अवतरणों में अंतर

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10:22, 16 मई 2010 के समय का अवतरण

आओ वापिस चलें
तुम वही लोग हो,
मुझ को मालूम है उम वही लोग हो,
जिन के अजदाद की शाहरगों का लहू
मुद्दतों इस गुलिस्तान को सींचा किया,
मुद्दतों की गुलामी की जंजीरों को
जिन के अजदाद ने तोड़ कर रख दिया ।

तुम वही हो जिन के दिल में कभी
इत्तहाद ओ अख्वत के जज़्बात थे
हर कड़ी वक्त पर जो वतन की खुदी के मुहाफिज़ रहे
जिन की पेशानियों का पसीना सदा
खिदमते कौम में सर्फ़ होता रहा।
जिनकी जिंदा दिली
जिन की सादा दिली,
हर तरहां की सियासत से बाला रही।
तुम वही हो कि जिनकी लुग़त में कभी
बरबरीयत कोई लफ्ज़ था ही नही।

मुझ को मालूम है,
ये जो सड़कों पर बिखरा हुआ लहू
यह जो माहौल दहशत ज़दा है यहाँ
यह जो गलियों में है सोग छाया हुआ,
यह जो आकाश को छू रहा है धुंआ
उठ रही हैं जो लपटें वहां आग की
यह सभी कुछ तुम्हारे किए से नही
इस के पीछे किसी और का हाथ है।

लेकिन ऐ दोस्तों
तुम ने सोचा भी है?, तुम ने जाना भी है?
इन सब एमाल से, ऐसे किरदार से
अपनी मंजिल की जानिब रवां कौम को
तुम ने लाकर कहाँ से कहाँ रख दिया ?

यह थकन, यह उदासी, यह पज़्मुर्दगी,
गर्द आलूद चेहरों की धुंधली ज़या,
कौम के ताज़ा दम होने के वक्त पर
तुम ने यह क्या किया?
हाय ! यह क्या किया??
यह कोई वक्त था? आपसी बैर का?

खैर अब तक तो जो सो हुआ,
याद रखने की अब से बस इक बात है।
कोई भी वक्त हो कोई भी दौर हो,
मुल्क हर फिरका ओ फर्द से है बड़ा!
और इसके आलावा भे ऐ दोस्तों
आदमी तो फरिश्तों की औलाद है
उसका शैतान बनना मुनासिब नही।

चौक, बाज़ार, गलियां, दुकानें
सभी शाह राहें दफातर मिलें,
ज़ंग खाती हुयी रेलों की पटरियां,
कारखानों की दम तोड़ती चिमनियाँ,
आलमें यास में सर गरां खैतियाँ
आदमी और धरती के पाकीजा रिश्ते की कसमें
सरों पर उठाये हुए, हर कदम पर सदा दे रही हैं तुम्हें!
आओ वापिस चले, आओ वापिस चले।