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आओ हे बसंत की रानी / रामकृपाल गुप्ता

आओ हे बसंत की रानी
कण-कण में नव उल्लास लिये
वन-उपवन में मधुमास लिये
आओ तम के पट चीर जगत् में
हे बसंत की रानी
कुछ खिले फूल झुक झूम-झूम
भौरों ने कुछ मुख लिये चूम
कहती उड़ती तितली रानी
पथ में बिखेर-सी देती
कुछ कोमल पराग
द्रुत गति से आओ
मृदु गति से आओ
हे बसंत की रानी
कुछ लाल पात संकेत भरे से हिल-हिल
कुछ सूनी लतिकाएँ भावों से बोझिल
रे मंदिर पवन अभिलाषा की मदिरा पी
काली कोयल कू-कू के स्वर से कहती
आँखों में मस्ती घोल
गुलाबी गालों से जगती को रंजित करती
मृदु गति से आओ
हे बसंत की रानी
टेसू की झुलसी लाली से
पूछो विरह कहानी
हा, यहाँ अभी अवशेष
वही युग-युग की प्यासी पुरानी
आओ लेकर जग में जीवन
कर में दीपों का थाल प्रभा बिखराती
उर-उर के स्नेह भरे दीपों से
तेरा होगा
राग भरा अभिवादन
जग में बिखरेगा गुंजन
उतरो जीवन के प्रांगण में
विप्लव की देवी आओ सत्वर
युग-युग के सपने लाँघ सदा की जानी
हे बसंत की रानी