Last modified on 28 अप्रैल 2010, at 00:55

आकाश की तरफ़ / विनोद कुमार शुक्ल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:55, 28 अप्रैल 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आकाश की तरफ़
अपनी चाबियों का गुच्छा उछाला
तो देखा
आकाश खुल गया है
ज़रूर आकाश में
मेरी कोई चाबी लगती है!
शायद मेरी संदूक की चाबी!!

खुले आकाश में
बहुत ऊँचे
पाँच बममारक जहाज
दिखे और छुप गए
अपनी खाली संदूक में
दिख गए दो-चार तिलचट्टे
संदूक उलटाने से भी नहीं गिरते!