भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आकाश / श्रीप्रसाद

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:07, 20 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीप्रसाद |अनुवादक= |संग्रह=मेरी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नीली चादर-सा फैला है
इसे नहीं छू पाओगे
लेकिन इस खाली गोले की
सभी जगह तुम पाओगे

जब सूरज पूरब में आता
लाल रंग रँग जाता है
और शाम को जैसे सोना
पश्चिम में लहराता है

तारों से आकाश भरा है
चाँद चमकता आकर के
सूरज हर दिन मुसकाता है
किरण-किरण बिखरा करके

आसमान में चिड़ियाँ उड़कर
दूर कहाँ तक जाती हैं
चलती हवा हमेशा गुमसुम
और आँधियाँ आती हैं

बादल आ आकाश गोद में
जल ही जल बरसाता है
इंद्रधनुष सातों रंगों को
खिलखिलाकर बिखराता है

सूरज की रोशनी चमककर
इसको करती है नीला
मगर रात में कब रहता है
दिन के जैसा चमकीला।